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कतिपय प्रज्ञात तथ्य ]
साधुओं द्वारा विशाल भूखण्डो, भवनों, ग्रामों, चैत्यों, वसतियों, मठों और धनराशियों
आदि के दान ग्रहग किये जाने के उल्लेखों से भरे पड़े हैं। इन सब उल्लेखों का अध्ययन कर इन पर विचार करने मे ऐसा आभास होता है कि देवद्धि क्षमाश्रमरण के उत्तरवर्ती काल में मठों, चैत्यों, वसतियों, मन्दिरों आदि का निर्माण करवाना, मन्दिरों की पूजा के लिये, कृषि भूमि, ग्राम, धनराशि आदि का दान ग्रहण करना, साधु और साध्वियों की प्राहार पानीय आदि की व्यवस्था के लिये बड़ी-बड़ी धनराशियों, कृषिभूमियों एवं ग्रामादि का दान ग्रहण कर साध साध्वियों के लिये भोजन बनवाना, उनके निमित्त बनाया हा प्राधाकर्मी सदोष भोजन खाना, खिलाना, मठों चैत्यों, वमतियों आदि महा परिग्रहों का स्वामित्व ग्रहण करना, मठों, चैत्यों, वसतियों आदि में बारहों माम निरन्तर एक ही स्थान पर नियत वास करना, संघ यात्राओं का आयोजन करना, प्राय: ये ही साधनों, प्राचार्यों, भट्टारकों आदि के साधु जीवन के प्रमुख कर्तव्य रह गये थे; जवकि यूगादि से देर्वाद्ध क्षमाश्रमण के स्वर्गस्थ होने के समय तक ये सब कार्य साधु जीवन के लिये पंचमहाव्रतधारी साधु मात्र के लिये अशुचिवत् अथवा विषवत् एकान्ततः जीवनपर्यन्त पूर्णतः त्याज्य माने जाते रहे ।
साधु, साध्वी, श्रावक, थाविका रूपी जिस चतुर्विध तीर्थ की--धर्म संघ के स्थापना के समय तीर्थकर प्रभु ने प्राणी मात्र के लिये, छोटे से लेकर बड़े से बड़े साधक वर्ग के लिये जन्म, जरा, व्याधि, उपाधि, मृत्यु आदि सभी प्रकार के मा . रिक दुखों के मूल कर्म बल को सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूपी रत्नत्रयी की तम्यग् पाराधना द्वारा ध्वस्त कर शाश्वत शिव सुख प्राप्ति, सच्चिदानन्द घन स्वरूपाताप्ति को ही एक मात्र चरम एवं परम लक्ष्य बताया था, देवद्धि के स्वर्गारोहण काल तक वीतराग जिनेन्द्र प्रभू के धर्म संघ के न केवल साधु साध्वी वर्ग अपितु थावक-श्राविका वर्ग ये चारों ही प्रकार के वर्ग उसी एक मात्र चरम लक्ष्य की प्राप्ति के लिये अपनी अपनी शक्ति सामर्थ्यानुसार प्रयत्नशील रहे।
किन्तु देवद्धि क्षमाश्रमण के उत्तरवर्ती काल के साध साध्वी श्रावक और श्राविका इन चारों वर्गों के, संलेखना को छोड शेष, कार्यकलापों का विवरगा मध्ययुगीन पुरातत्व सामग्री के अभिलेखों में पढ़कर ऐसा ग्राभास होता है कि भगवान् महावीर के धर्म संघ के चारों ही वर्गों ने या तो प्रभु द्वारा प्रदशित उस चरम परम लक्ष्य को भुला दिया था अथवा गौगा समझ लिया था।
देश के कोने-कोने से प्राप्त मध्ययुग की पुरातात्विक सामग्री के अभिलेखों में राजाओं, राज रानियों, मन्त्रियों, सेनापतियों, श्रेष्ठियों, सामन्तों, प्रशासकों, व्यापारी वर्गों, प्रजा की सभी जातियों के श्रावक श्राविकाओं द्वारा चैत्य वसति, जिन मन्दिर, मठ आदि के निर्माण, साधु साध्वियों के भोजन पान आदि की व्यवस्था और मन्दिरों को पूजा के निमित्त प्राचार्यों, मन्दिरों, मठों, वसतियों के स्वामी प्रबन्धक अथवा पौरोहित्य करने वाले श्रमगों श्रमणाग्ररिणयों को भूमि दान, भवन दान और
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