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________________ १२ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ हूं किन्तु देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के स्वर्गस्थ हो जाने के पश्चात् साधु-साध्वी वर्ग प्रायः शिथिलाचारी बन गया और उसके परिणामस्वरूप उन शिथिलाचारियों के द्वारा अनेक प्रकार की द्रव्य परम्परायें स्थापित कर दी गईं। नवांगी वृत्तिकार अभयदेवसूरि की इस गाथा से सिद्ध होता है कि देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के स्वर्गस्थ होने अर्थात् वीर निर्वाण सम्वत् १००० तक जैन धर्म में अध्यात्मपरक भाव परम्परा का प्रवाह भगवान् महावीर द्वारा प्ररूपित एवं गरणघरों द्वारा ग्रथित आगमों के अनुसार यथावत् अक्षुण्ण गति से चलता रहा। श्रमण श्रमणी वर्ग आगमानुसार निरतिचार विशुद्ध श्रमण धर्म का पालन करते हुए चतुर्विध संघ को आराधना साधना का सही उपदेश देकर उससे भाव परम्परा का पालन करवाते रहे। किन्तु देद्धिगणि क्षमा श्रमण के स्वर्गस्थ हो जाने के पश्चात् परिषहभीरु श्रमण श्रमणियों ने प्रसिधारा तुल्य दुस्साध्या क्रिया, अनियत निवास, उग्र विहार, परीषह सहन, सभी कुलों में मधुकरी के माध्यम से प्राप्त निर्दोष रूक्ष नीरस आहार से शरीर का निर्वाह, पूर्णत: अपरिग्रह आदि विशुद्ध श्रमणाचार को तिलांजलि देकर वस्तिवास से चैत्यवास तक स्वीकार किया। मठ, चैत्य आदि में नियत निवास, मठ चैत्यादि में भगवान को भोग लगाने के निमित्त से भोजनशालायें प्रारम्भ कर उन्हीं में नियत रूप से सरस भोजन करना, रुपया, पैसा, धन, दौलत, कृषि भूमि आदि का परिग्रह रखना, चैत्य, मठ आदि का सुविधानुसार निर्माण प्रादि करवा कर निजी सम्पत्ति के रूप में उनका स्वामित्व, छत्र चामर रथ पालकी सिंहासन दास दासी गद्दे मसनद बहमूल्य परिधान सुगन्धित उबटन तेल इत्र पान सुपारी आदि का अहर्निश उपभोग परिभोग आदि श्रमण मर्यादा से पर्णतः प्रतिकल चर्यायों को अंगीकार कर भूमिदान, चल-अचल सम्पत्ति का और विपुल द्रव्य का दान ग्रहण करना प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने धर्म के नाम पर प्रतिष्ठा महोत्सव, वाद्य यन्त्रों की ताल पर कीर्तन भजन, नृत्य संगीत, तीर्थ यात्रा आदि सैंकड़ों प्रकार के नित नये आडम्बरपूर्ण आयोजन कर सभी वर्गों के लोगों को अपने-अपने सम्प्रदाय, संघ, गच्छ आदि की ओर आकर्षित करना प्रारंभ किया । शिथिलाचार के गहन गर्त की ओर उन्मुख हए वे शिथिलाचारी श्रमण वेप मात्र से नामधारी मनि रह गये । सर्वज्ञ तीर्थकर प्रभु द्वारा प्रणीत जैन आगमों में प्रतिपादित श्रमणाचार का श्रमण मर्यादाओं का उन नियत निवामी चैत्यवामियों एवं मठवासियों के जीवन में लवलेश तक नहीं रहा । यह कोरी कल्पना मात्र नहीं है एपीग्राफिका इण्डिका, एपिग्राफिका कर्णाटिका, इण्डियन एण्टीक्वेरी, साउथ इण्डियन इन्सक्रिशन्म ग्रादि पुरातत्व सम्बन्धी सैकड़ों ग्रन्थमालाओं के हजारों पृष्ठ जैन शिलालेख संग्रह तीनों भागों के लगभग १५०० पृष्ठ, भगवान महावीर की मूल विशुद्ध श्रमग परम्परा मे भिन्न प्रकार की भट्टारक, यापनीय, मठवासी, चैत्यवासी, कर्चक, निर्ग्रन्थ आदि देवद्धि क्षमाश्रमण से उत्तरवर्ती काल की श्रमण परम्पराओं एवं साधु परम्परागों के प्राचार्यों एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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