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________________ ६४६ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ [वंश परिचय ] पासि तिकम्माभिरो, महादुवारम्मि खत्तिो पयडो। उज्जोयणो त्ति गाम, तच्चिय परि भुजिरे तइया ।। १६ ।। तस्स वि पुत्तो संपइ, गामेण बडेसरो त्ति पयडगुणो । तस्सुज्जोयण रणामो, तणो मह विरइया तेण ॥ २० ॥ [ ग्रन्थ-प्रणयन-स्थल ] तुगमलं घ जिण-भवण-मणहर सावयाउकं विसमं । जावालिउरं अट्ठावयं व ग्रह अत्थि पुहई ए॥ २१ ।। तुङ्ग धवलंमणहारि-रयण-पसरंत घयवडाडोयं । उसभ जिरिंणदाययणं करावियं वीर भदेण ।। २२ ।। तत्थ ठिएणं मह चोदसीए तेतस्स कण्ह पक्खम्मि। - रिणम्मविया बोहिकरी, भव्वाणं होउ सव्याणं ।। २३ ।। पर भउ-भिडडी-मंगो, पणईयण-रोहिणी-कला-चंदो। सिरि बच्छराय णामो, रणहत्थी पत्थिवो जइया ॥२४ ।। थोय-महणा वि बढा, एसा हिरिदेवि वयणेण। चंद कुलावयवेणं पायरिय उज्जोयणेण रइया मे ।। २५ ।। सगकाले वोलीणे वरिसाणं सयेहिं सत्तहिं गएहिं । एग दिणेणूणेहि, रइया मवरण्ह-वेलाए ॥ २६ ॥' "कुवलय माला" वस्तुतः प्राकृत कथा साहित्य का उत्तम ग्रन्थ है। इसमें भाषा का प्रवाह कल-कल निनादी प्राकृतिक निझर के समान सहज स्वाभाविक और प्रसाद गुणोपेत है। दाक्षिण्य चिन्ह ने बड़ी दक्षता से संस्कृत, अपभ्रंश प्रादि भाषाओं के प्रयोगों, सूक्तियों-सुभाषितों, प्रहेलिकामों, देश-देशान्तरों में वाणिज्य हेतु भ्रमण करने वाले कुशल व्यापारियों द्वारा बोल-चाल के समय व्यवहार में लाये गये देश-देशान्तरों की बोलियों के सुन्दर शब्दों, वाक्यों मादि से अपनी इस सुन्दर कृति का श्रृंगार कर इसकी सुन्दरता में चार चांद लगा दिये हैं। इसके रचनाकार उद्योतन सूरि पर अपने शिक्षा गुरु हरिभद्र की अमर कृति समराइच कहा का प्रभाव स्पष्टतः परिलक्षित होता है । कुवलय माला की भाषा, वर्णन शैली इस बात का प्रमाण है कि दाक्षिण्य चिन्ह भाचार्य का अध्ययन बड़ा गहन था। ' कुवलय माला, सिंधी जैन शास्त्र शिक्षा पीठ, भारतीय विद्या भवन, बम्बई, प्रथमा. वृत्ति, वि. सं. २०१५, पृष्ठ २८२-२८३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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