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________________ वीर सम्बत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [ ६४३ मानव जन्म में ही समीचीन रूप से सिद्ध की जा सकती है। ऐसे अनमोल मानव भव को, कभी तृप्त न होने वाली विषय-वासनामयी भोग लिप्सा में खो देना वस्तुतः चिन्तामणि रत्न को प्रोर-छोर विहीन अथाह दल-दल से ओत-प्रोत अन्धकूप में फेंक देने तुल्य महामूर्खतापूर्ण कृत्य ही होगा। इस प्रकार बोधि लाभ होते ही राजकुमार उद्योतन को संसार से विरक्ति हो गई। उन्होंने अथक प्रयास कर माता-पिता से श्रमण धर्म में दीक्षित होने की अनुज्ञा प्राप्त की। राजकुमार उद्योतन ने राजकीय ऐश्वर्य, भोगोपभोग, पारिवारिक मोह-ममत्व प्रादि का तृणवत् त्याग कर तत्वाचार्य के पास श्रमण धर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली। श्रमण धर्म में दीक्षित होने के पश्चात् मुनि उद्योतन ने अपने गुरु तत्वाचार्य की सेवा में रहते हुए शास्त्रों का अध्ययन किया। अपने मेधावी शिष्य उद्योतन मुनि की कुशाग्र बुद्धि और उत्कट ज्ञान पिपासा से प्रभावित हो तत्वाचार्य ने उन्हें अपने समय (विक्रम की आठवीं-नौवीं शताब्दी) के जैन सिद्धांतों के उच्चकोटि के यशस्वी विद्वानों के पास अध्ययन हेतु भेजने का निश्चय किया। निश्चयानुसार तत्वाचार्य ने मुनि उद्योतन को जैन आगमों के उस काल के महान् ज्ञाता वीरभद्र सूरि के पास भेजा। वीरभद्र सूरि की सेवा में रहकर मुनि उद्योतन ने जैन सिद्धांतों का तल स्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया। तदनन्तर तत्वाचार्य ने उद्योतन मुनि को न्याय शास्त्रों का अध्ययन करने के लिये दर्शन और न्याय शास्त्र के उद्भट विद्वान् याकिनी महत्तरासून भव विरह-हरिभद्र सूरि की सेवा में भेजा। अपने समय के अप्रतिम न्याय शास्त्री, बहुमुखी ज्ञान के धनी हरिभद्र सूरि के चरणों की सन्निधि में रहकर मुनि उद्योतन ने यूक्तिशास्त्रों (न्याय शास्त्रों) के अध्ययन के साथ-साथ अन्य अनेक विषयों का बड़ी ही लगन एवं निष्ठा के साथ अध्ययन किया। अपना अध्ययन समाप्त करने के पश्चात् जब उद्योतन सूरि ने "कुवलय माला" नामक ग्रन्थरत्न की रचना की तो उसकी प्रशस्ति में इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया है कि उन्होंने हरिभद्र सूरि के सान्निध्य में रहकर न्याय शास्त्रों और सिद्धांतों का अध्ययन किया। वह प्रशस्ति गाथा इस प्रकार है : "सो सिद्धतेण गुरु, जुत्तिसत्थेहि जस्स हरिभट्टो। बहुसत्थगंथवित्थर-पत्थारियपयड सच्चत्थो॥"" अर्थात् हरिभद्र सूरि ने मुझे दर्शन शास्त्रों की शिक्षा दी, इसलिये सिद्धांततः । मेरे गुरु हैं। उन महान् प्राचार्य हरिभद्र सूरि ने पागम शास्त्रों एवं ग्रन्थों पर व्याख्या एवं वृत्तियों की कई रचनाएं की। साथ ही दर्शन न्याय, दार्शनिक ग्रन्थों, ' कुवलय माला प्रशस्ति, गाथा संख्या १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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