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प्राचार्य वीरभद्र
वीर निर्वाण की तेरहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में वीर भद्र नामक एक प्राचार्य हुए हैं । वे किस गच्छ के थे, उनके गुरु कौन थे और उनकी शिष्य परम्परा में उनके पट्टधर कौन-कौन हुए इस सम्बन्ध में कोई प्रामाणिक जानकारी हमें उपलब्ध नहीं हो सकी है। कुवलय माला की प्रशस्ति से इनके सम्बन्ध में इतना ही परिचय प्राप्त होता है कि वे सिद्धान्तों के अपने समय के मर्मज्ञ विद्वान् प्राचार्य थे और उद्योतनसूरि ने जालौर में रहकर उनके पास सिद्धान्तों का अध्ययन किया। इनके सम्बन्ध में यह भी प्रसिद्धि है कि जाबालिपुर (जालोर) में भगवान् ऋषभदेव का एक विशाल, प्रसिद्ध एवं भव्य मन्दिर आपके उपदेश से बनवाया गया।
प्राचार्य वीरभद्रसूरि ने कुवलयमालाकार उद्योतन सूरि को शास्त्रों का अध्ययन करवाया। इससे यह प्रमाणित होता है कि वे याकिनी महत्तरासूनु आचार्य हरिभद्रसूरि के समकालीन और सम्भवतः पर्याप्तरूपेण वयोवृद्ध आचार्य थे।
ऐसा अनुमान किया जाता है कि प्राचार्य हरिभद्रसूरि ने जिस समय महानिशीथ की जीर्ण-शीर्ण, खण्डित-विखण्डित एकमात्र प्रति के आधार पर महानिशीथ का पुनरुद्धार किया उस समय आगमों के तलस्पर्शी ज्ञाता ये प्राचार्य वीरभद्रसूरि स्वर्गस्थ हो गये हों। यदि ऐसा नहीं होता तो अपने समय के जिन महान् विद्वान् प्राचार्यों को हरिभद्र सूरि ने महानिशीथ की स्वयं द्वारा पुनरुद्धरित प्रति सम्मत्यर्थ दिखलाई और जिनका हरिभद्र सूरि ने नामोल्लेख किया है, उनमें इन वीरभद्र सूरि का भी नामोल्लेख अवश्यमेव होता। आगमों के तलस्पर्शी ज्ञान के धारक आचार्य वीरभद्र महानिशीथ के उद्धार तक विद्यमान रहें और उनको हरिभद्रसूरि सम्मत्यर्थ महानिशीथ की प्रति न दिखायें, इस बात पर विश्वास नहीं किया जा सकता।
इस प्रकार की परिस्थिति में प्राचार्य वीरभद्र सूरि के समय के सम्बन्ध में कुवलयमाला प्रशस्ति के एवं अनुमान के आधार पर केवल इतना ही कहा जा सकता है कि वे वीर निर्वाण की १२वीं शताब्दी के अन्तिम दशक से लेकर वीर निर्वाण की तेरहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के मध्यवर्ती समय में प्राचार्यपद पर आसीन रहे। वे नागेन्द्रगच्छ के थे अथवा किसी अन्य गच्छ के इस सम्बन्ध में ठोस प्रमाणों के अभाव में कुछ भी नहीं कहा जा सकता।
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