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राष्ट्रकूट राजा दन्ति दुर्ग
वीर नि० सं० १२५७ से १२८० तक मान्यखेट के राष्ट्रकूटवंशीय राजसिंहासन पर इस राजवंश के ६ठे शासक दन्ति दुर्ग अपर नाम : - (१) दन्तिवर्मा, (२) खड्गावलोक, (३) पृथ्वीवल्लभ, (४) वैरमेघ, और (५) साहसतुरंग का अधिकार रहा । यह बड़ा प्रतापी राजा था। सभी इतिहासविद् इसे राष्ट्रकूट राजवंश को एक शक्तिशाली राज्य का रूप देने वाला मानते हैं । दिगम्बराचार्य अकलंक ने इसकी राजसभा में उपस्थित हो इसे एक महान् विजेता और दानियों में महादानी बताकर इसकी प्रशंसा की थी । इसने ई० सन् ७४२ में एलोरा पर अधिकार किया । दन्तिदुर्ग ने मालव, गुर्जर, कोशल, कलिंग, और श्रीशैलम् प्रदेश के तेलुगु - चोल राजाओं को क्रमशः एक एक कर के युद्ध में पराजित कर अपना प्रज्ञावर्ती बनाया । तदनन्तर वह कांची की ओर बढ़ा और कांचिपति नन्दिवर्मन पल्लवमल के साथ अपनी पुत्री रेखा का विवाह किया।
अपनी शक्ति को सुदृढ़ कर लेने के पश्चात् उसने चालुक्यराज कीर्तिवर्मन पर अपनी मृत्यु से लगभग एक वर्ष पूर्व आक्रमण कर उसे अन्तिम रूप से पराजित किया । चालुक्यराज को पराजित करने के पश्चात् दन्तिदुर्ग ने अपने आपको दक्षिणापथ का सार्वभौम सत्तासम्पन्न राजा घोषित किया ।
दन्तिदुर्ग जिनशासन के अभ्युदय, प्रचार-प्रसार के कार्यों में बड़ी रुचि लेता था और वह परम जिनभक्त था ।
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इसके रेखा नाम की एक पुत्री के अतिरिक्त कोई सन्तति नहीं थी । इसी कारण इसकी के मृत्यु पश्चात् इसका पितृव्य (चाचा) कृष्ण प्रथम मान्यखेट के
राजसिंहासन पर बैठा ।
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