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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास -भाग ३
पराजित हुआ। बहुत बड़ी धनराशि देकर उसने संधि की जिससे उसका कोशबल पूर्णतः क्षीण हो गया। गंगराज श्रीपुरुष और उसके पुत्र ऐरेयप्पा द्वारा चालुक्य युवराज को की गई सहायता के परिणामस्वरूप ही ये दुर्दिन देखने पड़े हैं, इस प्रकार विचार कर परमेश्वर वर्मन (द्वितीय) ने श्रीपुरुष से प्रतिशोध लेने की भावना से उस पर अचानक ही आक्रमण कर दिया। विल्लन्द नामक स्थान पर श्रीपुरुष की परमेश्वर वर्मन से मुठभेड़ हुई और श्रीपुरुष ने पल्लवराज परमेश्वर वर्मन को उस मुठभेड़ में मार डाला।
परमेश्वर वर्मन का कोई सुयोग्य उत्तराधिकारी, मुख्य पल्लव राजवंश में नहीं होने के कारण दूसरी शाखा के पल्लव हिरण्यवर्मन के पुत्र नन्दिवर्मन (द्वितीय) को प्रजा को सम्मति से राजा चुना गया। इससे भयंकर गृह-कलह हुमा किन्तु नन्दिवर्मन पल्लवमल उन संकटों से पार हुआ।
युवराज विक्रमादित्य द्वारा कांची पर किया गया आक्रमण वस्तुतः पल्लव राजवंश को सदा के लिये समाप्त कर देने वाला वज्रप्रहार था। नन्दिवर्मन को विक्रम ने पराजित किया, कुछ समय तक कांची पर अपना अधिकार भी रखा किन्तु बड़ी ही उदारतापूर्ण सूझबूझ से काम लिया। उसने किसी को किसी भी प्रकार की क्षति पहुंचाना तो दूर बड़ी उदारता के साथ दान देकर प्रजाजनों को संतुष्ट किया। कैलाशनाथ के मन्दिर और अन्य मन्दिरों से जो मरणों सोना नगर पर अधिकार करते समय लिया गया था, वह सब सोना युवराज विक्रम ने उन मन्दिरों को लौटा दिया । यह सब वृतान्त चौलुक्य युवराज ने कैलाशनाथ मन्दिर के एक स्तम्भ पर उद्र कित करवाया। उसने चौलुक्य राजवंश के भाल पर जो यह कलंक का टीका लगा था- “पल्लवराज नरसिंह वर्मन ने बादामी पर एक बार अधिकार कर लिया था"-उस कलंक के टीके को धो डाला। यह घटना ई० सन् ७४० के आस-पास की है।
तदनन्तर विक्रमादित्य (द्वितीय) कांची का शासन नन्दिवर्मन पल्लवमल्ल को सम्हला कर सदलबल बादामी लौटः आया।
इसके शासनकाल में भी शान्ति और समृद्धि के साथ-साथ मन्दिरों आदि के निर्माण कार्य में वस्तुतः उल्लेखनीय अभिवृद्धि हुई।
चालुक्य सम्राट विक्रम (द्वितीय) के पश्चात् उसका पुत्र कीर्तिवर्मन बादामी के राजसिंहासन पर ई० सन् ७४४ में बैठा । इसके कुल मिलाकर सात-आठ वर्ष के शासनकाल में बादामी का प्रतापी राज्य निरन्तर क्षीण एवं निर्बल होता गया। वस्तुतः यह बादामी के चालुक्य शासकवंश का अन्तिम राजा सिद्ध हुआ। इसका मुख्य कारण यह प्रतीत होता है कि वज्रटों, चोलों, पाण्डयों और राष्ट्रकूटों के साथ इसे अनेक बार युद्धों में उलझना पड़ा।
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