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३३ वें युगप्रधानाचार्य संभूति के समय की राजनैतिक स्थिति (बादामी का चालुक्य राजवंश)
ई. सन् ७३३ में चालुक्य राज विक्रमादित्य के पश्चात् उसका पुत्र विक्रमादित्य (द्वितीय) बादामी के राजसिंहासन पर बैठा। इसका शासन ७४४ तक रहा ।
सिन्ध प्रदेश में शासन कर रहे अरबों ने दक्षिणापथ की ओर बढ़ने के उद्देश्य से सिन्ध प्रदेश से लगे गुर्जर प्रदेश के क्षेत्रों पर ई. सन् ७३४-३५ में अधिकार करना प्रारम्भ किया । गुजरात में चालुक्य राज के प्रतिनिधि पुलकेसिन ने उन अरबों पर आक्रमण किया और उन्हें परास्तकर पुनः सिंध प्रदेश में भागने के अतिरिक्त उनके लिये अन्य कोई रास्ता नहीं रखा । यह पुलकेसिन चालुक्यराज विक्रमादित्य ( प्रथम ) के भ्राता उस जयसिंह का पुत्र था जिसने कि प्रथम विक्रमादित्य का बादामी राज्य की पुनः संस्थापना में सदा साथ दिया था और जो विक्रमादित्य द्वारा दक्षिण गुजरात का प्रतिनिधि शासक ( सामन्त ) नियुक्त किया गया था ।
विक्रमादित्य (द्वितीय) दक्षिणी गुजरात के शासक पुलकेसिन की इन शौर्यपूर्ण सेवाओं से अतीव प्रसन्न हुआ । उसने पुलकेसिन का राजसी सम्मान कर उसे " अवनि – जनाश्रय” – अर्थात् पृथ्वी पर बसने वाले मानव मात्र का श्राश्रय-सहारा अथवा शरण्य की सर्वोच्च सम्मान पूर्ण उपाधि से अलंकृत किया । अरबों को पुनः सिन्ध की ओर खदेड़ने में राष्ट्रकूट राजा दन्तिदुर्ग ( ई. सन् ७३०-७५३) ने भी उल्लेखनीय कार्य किया । यह दन्तिदुर्ग विक्रमादित्य (द्वितीय) के शासनकाल तक बादामी के चालुक्यों का सामन्त था ।
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कांचिपति नरसिंह वर्मन द्वारा बादामी पर आक्रमण कर उस पर अधिकार किये जाने और उस युद्ध में अपने पिता के प्रपिता चालुक्य सम्राट पुलकेशिन द्वितीय के मारे जाने की घटना बादामी के राजाओं के हृदय में शूल की तरह खटकती प्रा रही थी । विक्रमादित्य (द्वितीय) के मन में अपने यौवराज्यकाल में ही प्रतिशोध लेने की अदम्य उत्कण्ठा उत्पन्न हुई । उसने गंगराजवंश के १६वें राजा श्री पुरुष ( ई. ७२७-८०४) के पुत्र (चालुक्य साम्राज्य के प्रशासक ) ऐरेयप्पा की सहायता से एक शक्तिशाली एवं विशाल सेना ले कांची पर आक्रमण किया । उस समय कांची पर नरसिंह वर्मन प्रथम (ई. ६३० - ६६८), जिसने बादामी पर अधिकार किया और पुलकेशिन (द्वितीय) को युद्ध में मारा था, के प्रपौत्र परमेश्वर वर्मन द्वितीय ( ई० ७२० - ७३१ ) का शासन था । भीषण युद्ध के पश्चात् कांचिराज
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