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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ सन्धि पत्र के "यशोवर्मन मौर ललितादित्य के बीच शांति-सन्धि' इस शीर्षक को देखकर ललितादित्य के सांधिविग्रहिक मंत्री ने अपने स्वामी कश्मीर के महाराजा ललितादित्य से पूर्व यशोवर्मन के नाम के लिखे जाने पर आपत्ति की। दोनों पक्षों में से कोई भी पक्ष अपने स्वामी का नाम दूसरे स्थान पर रखने के लिये सहमत नहीं हुमा। इसका भयंकर परिणाम यह हुमा कि यशोवर्मन और ललितादित्य के बीच सन्धि होते-होते रुक गई। यद्यपि ललितादित्य के सेनापति लम्बे युद्ध से ऊब चुके थे तथापि दोनों पक्षों की सेनामों ने युद्धभूमि में अपने-अपने मोर्चे सम्हाले और भारत को शक्तिशाली बनाने के समान उद्देश्य वाले उन दोनों राजामों के बीच पुनः युद्ध प्रारम्भ हो गया। बड़ा लोमहर्षक युर हुमा।"
यशोवर्मन पौर ललितादित्य के बीच हुए इस घोर युद्ध के मन्तिम परिणाम के सम्बन्ध में राजतरंगिणीकार कलग प्रागे लिखता है :
"ललितादित्य के साथ हुए यशोवर्मन के युद्ध का परिणाम यह हुमा कि जिस यशोवर्मन की यशस्वी कवि वापतिराज और महाकवि भवभूति सेवा किया करते थे, वह यशोवर्मन महर्निश ललितादित्य का गुणगान करने वाले साधारण सामन्त की स्थिति (नाममात्र) का राजा रह गया। इस सम्बन्ध में विशेष कहने की मावश्यकता नहीं, यमुना के तट से (केवल) कालिका नदी के तट तक की सीमा वाले उसके कान्यकुम्जकी परिधि उसके निवास स्थान के एक प्रकोष्ठ के तुल्य उसके अधिकार में रह गई थी। यशोवर्मन को लांघती हई............... ललितादित्य को सेनाएं बिना किसी प्रयास के सहज ही मानन-फानन में ही पूर्व सागर तक पहुंच गई।"
कहण ने यह भी लिखा है कि ललितादित्य ने यशोवर्मन को समूल नष्ट कर दिया।
इस प्रकार भारत को एक अजेय शक्तिशाली राष्ट्र बनाने का स्वप्न असमय में ही टूट गया। यह भारत के लिये बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण घटना थी कि दो राजामों के बोये ग्रहम् मोर उन राजामों के महमक मन्त्रियों की प्रदूरदर्शिता के कारण भारत की जो सेनाएं पाने वाले दिनों में देश की रक्षा के लिये काम में पातीं, वे परस्पर ही लड़-भिड़ कर नष्ट अथवा प्रशक्त हो गई।
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