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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
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सैनिक सहायता प्रदान की जाय ।' ललितादित्य ने अपने प्रतिनिधि मण्डल के माध्यम से चीन के सम्राट को यह भी निवेदन किया कि अरबों और तिब्बतवासियों के भारत पर बढ़ते हुए दबाव को रोकने का वह (ललितादित्य) और यशोवर्मन सम्मिलित प्रयास कर रहे हैं। इन उल्लेखों से यह प्रमाणित होता है कि यशोवर्मन भारत की अखण्डता एवं रक्षा के लिये एक दूरदर्शी सजग प्रहरी के रूप में चितित अथवा चिंतनशील था।
ऐतिहासिक घटनाक्रम इस बात का साक्षी है कि ई० सन् ७३४-७३५ में अरबों ने सिंध से लगी हई गुजरात की सीमानों में घसकर कन्नौज, उज्जैन आदि की ओर बढ़ने की इच्छा से सैनिक अभियान प्रारम्भ किये, जिन्हें कि चालुक्य विक्रमादित्य द्वितीय के गुजरात प्रदेश के राज्यपाल प्रथवा प्रशासक पुलकेशिन और राष्ट्रकूटवंशीय राजा दंतिदुर्ग ने युद्धों में पराजित कर पुनः सिंघ की ओर भाग जाने के लिये बाध्य कर दिया। अरबों के इस आक्रमण को विफल करने में यशोवर्मन एवं ललितादित्य द्वारा किसी प्रयास के किये जाने के उल्लेखों के प्रभाव से यह अनुमान किया जाता है कि इस समय तक यशोवर्मन और ललितादित्य जो अरबों से भारत की रक्षा के पुनीत कार्य के लिये कृत-संकल्प थे, इन दोनों के बीच आपसी मनमुटाव संघर्ष का रूप धारण कर गया था। डॉ० पी० सी० बागची के अभिमतानुसार यशोवर्मन ने चीन के सम्राट को यह निवेदन भी करवाया था कि वे ललितादित्य और उसके (यशोवर्मन के) बीच उत्पन्न हुए कलह को शांत करने के लिये मध्यस्थता करें।
अरबों द्वारा गुजरात के मार्ग से भारत के मध्यवर्ती कन्नौज, उज्जैन आदि क्षेत्रों की प्रोर बढ़ने के लिये किये गये उपरिवणित प्रयास को विफल करने में ललितादित्य और यशोवर्मन की उदासीनता का जो आनुमानिक कारण ऊपर बताया गया है, उसकी पुष्टि राजतरंगिणी के उल्लेखों से भी होती है।
काश्मीरराज ललितादित्य के प्रीतिपात्र राजकवि कहण ने अपने ऐतिहासिक महत्त्व के ग्रंथ "राजतरंगिणी" में इन दोनों राजामों (ललितादित्य और यशोवर्मन) के बीच हुए संघर्ष का उल्लेख करते हुए लिखा है :
"काश्मीर के महाराजाधिराज ललितादित्य और कन्नोजराज यशोवर्मन के बीच पर्याप्त समय से परस्पर मनोमालिन्य चल रहा था, जिसने अंततोगत्वा संघर्ष का रूप धारण कर लिया। संघर्ष को उग्र रूप धारण करते देख दोनों ने सन्धि करने का विचार दिया। सन्धिपत्र का पालेखन भी कर लिया गया। किन्तु उस
' स्टेन द्वारा प्रांग्ल भाषा में अनुदित राजतरंगिणी, ४, की टिप्पण सं. १३४
दी हिस्ट्री एण्ड कल्चर प्राफ दी इण्डियन पीपल, दी क्लासिकल एज, पृष्ठ १३०, टिप्पण ४
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