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________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [ ६१६ उनके भागिनेय विमलादित्य को शनिश्चर की व्याधि से सर्वदा के लिये मुक्त कर दिया है। इस उपलक्ष में अर्ककीर्ति को एक अच्छा सा ग्राम दान में दिया जाय । प्रभूतवर्ष ने अपने राज्यपाल की प्रार्थना स्वीकार कर अपने अधीनस्थ राजा चालुक्य विमलादित्य को रोगमुक्त कर देने के उपलक्ष में अर्ककीर्ति को जालमंगल नामक एक ग्राम शिलाग्राम में अवस्थित जिन मन्दिर की समुचित व्यवस्था के लिये दान में दिया। राष्ट्रकूट वंश के राजा प्रभूतवर्ष (गोविन्द द्वितीय) का परिचय प्रस्तुत ग्रन्थ के पृष्ठ २६० पर दिया जा चुका है । उपयुद्धत अभिलेख में चालुक्य राजा यशोवर्मन् को समस्त नरेन्द्र मण्डल का विजेता बताया गया है। ई. सन् ७०० से ८०० की अवधि में न केवल चालुक्य राजाओं की वंशावलि में अपितु किसी भी अन्य राजवंश की वंशावलि में यशोवर्मन नामक अन्य किसी राजा के होने का उल्लेख नहीं है । दक्षिणी भारत के इतिहास के यशस्वी विद्वान् देसाई ने विमला दित्य से पर्याप्त उत्तरवर्ती काल ईसा की १०वी ११वीं शताब्दी में दासवर्मन अपर नाम यशोवर्मन नामक एक राजकुमार के बादामी के चालुक्य राजवंश में होने का उल्लेख किया है। यशोवर्मन का उल्लेख करते हुए उन्होंने पुरातत्व सामग्री के आधार पर यह सिद्ध किया है कि विक्रमादित्य पंचम और उसके अययन और जयसिंह (द्वितीय) नामक दो भाइयों को बादामी के चालुक्यों की अनेक राजवंशावलियों में चालूक्यराज सत्याश्रय-अपर नाम इडिववेडंग के पुत्र होना बताया गया है। किन्तु पुरातत्व सामग्री से यह सिद्ध होता है कि ये तीनों सत्याश्रय के नहीं अपितु सत्याश्रय के लघु भ्राता दासवर्मन अपर नाम यशोवर्मन के पुत्र थे।' यह यशोवर्मन वस्तुतः ईसा की दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी में हुमा है, इसमें किंचित् मात्र भी सन्देह नहीं। क्योंकि इसके पिता चालुक्यराज तैल द्वितीय का शासनकाल ई. सन् ६७३ से ६६७ और इसके ज्येष्ठ भ्राता चालुक्यराज सत्याश्रय का शासनकाल ई. सन् ६६७-१००८ है। ___इस प्रकार की स्थिति में बादामी चालुक्य राजवंश के इस यशोवर्मन अपर नाम दासवर्मन को तो ई. सन् ७०० से अनुमानतः ७४० तक कन्नौज के शक्तिशाली राज्य पर शासन करने वाला यशोवर्मन मान लेने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता । ईसा की सातवीं शताब्दी से लेकर दसवीं शताब्दी तक यशोवर्मन नाम का उपयुद्ध त लेख में वर्णित यशोवर्मन को छोड़कर अन्य कोई राजा भारत की किसी भी प्रसिद्ध राजावलि में दृष्टिगोचर नहीं होता। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि राष्ट्रकूटवंशीय राजा प्रभूतवर्ष उपरिवणित दानपत्र में जिस महाप्रतापी समस्तनरेन्द्रमण्डल के विजेता के रूप में ' जैनिज्म इन साउथ इण्डिया एण्ड सम जैन इपिग्राफ्स पी. बी. देसाई लिखित, पेज २१० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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