________________
वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
[ ६१५ गुणभद्र के पट्टधर शिष्य के रूप में आचार्य लोकसेन का नाम लन्ध होता है, विनयसेन का नहीं।
यह तो एक निर्विवाद, सर्वसम्मत एवं इतिहास सिद्ध तथ्य है कि पंचस्तूपान्वयी सेन संघ के प्राचार्य वीरसेन ने विक्रम सं० ८३० में धवला टीका का, उनके शिष्य जिनसेन ने वि० सं० ८६४ में जयघवला टीका का और वीरसेन के प्रशिष्य तथा जिनसेन के शिष्य उत्तरपुराणकार प्राचार्य गुणभद्र ने उनके शिष्य लोकसेन द्वारा निर्मित उत्तरपुराण की प्रशस्ति के अनुसार विक्रम सं० ६५५ से कुछ वर्ष पूर्व उत्तरपुराण का निर्माण किया।
इस प्रकार की स्थिति में प्राचार्य वीरसेन से ५वीं पीढ़ी में, जिनसेन से ४ थी पीढ़ी में पौर प्रा० गुणभद्र से तीसरी पीढ़ी में हुए कुमारसेन ने वि० सं० ७५३. में अर्थात् वीर सेन से ७७ वर्ष पूर्व, जिनसेन से १४१ मोर गुणभद्र से २०२ वर्ष पूर्व ही काष्ठा संघ की स्थापना किस प्रकार कर दी। अपने गुरु अथवा प्रगुरु से ही नहीं किन्तु अपने प्रगुरु के भी गुरु और प्रगर से पूर्व कुमारसेन ने काष्ठा संघ की स्थापना कर दी, यह प्राकाश-कुसुम तुल्य असम्भव बात तो किसी भी व्यक्ति को मान्य नहीं हो सकती।
__ यद्यपि दर्शनसार में काष्ठा संघ की स्थापना का संवत् ७५३ सुस्पष्ट रूपेण उल्लिखित है, तथापि कालक्रम को संगति बैठाने की रष्टि से यदि इसे शक संवत् भी मान लिया जाय तो भी शक सं० ७५३ का वि० सं० ८८८ होता है । यह समय भी जयघवला के निर्माण कार्य की समाप्ति से ६ वर्ष पूर्व प्रौर काष्ठासंघ के संस्थापक कुमारसेन के प्रगुरु गुणभद्र से भी ६७ वर्ष पूर्व पड़ता है।
यदि यह कल्पना की जाय कि दर्शनसार में कुमारसेन की जो गुरु-परम्परा दी गई है, वह पंचस्तूपान्वयी सेनसंघ की प्राचार्य परम्परा न हो कर किसी अन्य संघ की ही गुरु परम्परा है तो इस पर भी विश्वास नहीं होता। तीन पीढ़ियों तक गुरु शिष्यों के ये ही नाम सेनसंघ के अतिरिक्त अन्य किसी संघ अथवा परम्परा में रष्टिगोचर नहीं होते । "भट्टारक परम्परा" नामक इतिहास अन्य के रचनाकार प्रो. वी० पी० जोहरापुरकर ने भी दर्शनसार को उपरिलिखित गाथामों में जिन प्राचार्य गुणभद्र का उल्लेख किया गया है, उन्हें दर्शनसार की गाथा सं० ३०-३२ के उल्लेख के साथ सेन गण का प्राचार्य ही माना है।'
देवसेनाचार्य का "दर्शनसार" सुदीर्घावधि से अनेक विद्वानों द्वारा जैन इतिहास के कतिपय तथ्यों के सम्बन्ध में पर्याप्त रूपेण प्रामाणिक कृति के रूप में
' भट्टारक-परम्परा, (बी० पी० जोहरापुरकर) १० ३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org