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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ भली-भांति वहन करने में सक्षम थे। जिनसेन के शिष्य गुणभद्र हुए जो सर्वगुण सम्पन्न, दिव्य (विशिष्ट) ज्ञानी, पक्षोपवासी अथवा महा तपस्वी एवं भावलिंगी (भट्टारक-द्रव्यलिंगविहीन) साधु थे। उन गुणभद्र ने अपने अवसानकाल को समीप जानकर अपने शिष्य विनयसेन को समस्त सिद्धान्तों का ज्ञान देकर स्वर्गलोक को प्रयाण किया। उन प्राचार्य विनयसेन द्वारा दीक्षित कुमारसेन नामक साधु था। उसने सन्यास धर्म से भ्रष्ट हो जाने के उपरान्त भी पुनः श्रमण धर्म की दीक्षा ग्रहण नहीं की। उस कुमारसेन ने पिच्छी का परित्याग कर चंवर (चंवरी गौ के बालों की चंवरी, जिसके मध्यम प्रहार से ही मक्खी-मच्छर आदि जन्तु मर जाते हैं) धारण कर लिया। मोहविमुग्ध बने उस कुमारसेन ने बागड़ प्रदेश में उन्मार्ग का प्रवर्तन किया। उसने स्त्रियों को श्रमणी धर्म में दीक्षित करने का विधान किया। उसने शूद्र वर्ण के लोगों के घरों से साधु-साध्वियों द्वारा भिक्षा ग्रहण करने का विधान किया। उसने कर्कश-केशग्रहण को छठा गुरगवत बतलाया। उस कुमारसेन ने अन्य ही प्रकार के नवीन प्रागमों, शास्त्रों, पुराणों और प्रायश्चित्त ग्रहण करने के ग्रन्थों की रचना कर उन्हें मूढ़ लोगों में प्रचलित करके मिथ्यात्व का प्रसार किया । उस मिथ्यात्वी कुमारसेन को श्रमण संघ से निष्कासित कर दिया गया। उपशम भाव से विहीन रौद्र स्वभाव वाले उस कुमारसेन ने नंदितट नामक सुन्दरग्राम में विक्रम सं० ७५३ में दर्शनभ्रष्ट हो काष्ठा संघ की स्थापना की।
ऐसा प्रतीत होता है कि दर्शनसार में काष्ठा संघ की उत्पत्ति विषयक जो उपरिलिखित विवरण देवसेनाचार्य ने प्रस्तुत किया है, उसे अभी तक विद्वानों द्वारा ऐतिहासिक कसौटी पर नहीं कसा गया है। इस समस्त विवरण को यदि इतिहास की कसौटी पर कसा जाय तो साधारण से साधारण पाठक को भी सहज ही यह ज्ञात हो जायगा कि यह सब विवरण न केवल जनश्र ति के माधार पर प्रपितु नितान्त प्रविश्वनीय किंवदन्ती के प्राधार पर प्राचार्य देवसेन ने अपनी लघु कृति 'दर्शनसार' में संकलित प्रथवा निबद्ध किया है। तथ्यों की कसौटी पर कसने के उद्देश्य से ही उपरिलिखित १० गाथाओं को अविकल रूप से यहां उपत किया गया है।
काष्ठा संघ की स्थापना करने वाले कुमारसेन को गुरु-परम्परा के पूर्वाचार्यों में क्रमश: वीरसेन, जिनसेन, गुणभद्ग और मुंनि विनयसेन-इन पट्टधर प्राचार्यों के नामों का उल्लेख किया गया है। सेन संघ की पट्टावली और उत्तरपुराण प्रादि की प्रशस्तियों में धवलाकार वीरसेन, जयघवलाकार जिनसेन और उत्तरपुराणकार गुणभद्र के क्रमशः गुरु-शिष्य क्रम से नाम उल्लिखित हैं। उत्तरपुराण की प्रशस्ति में
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