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________________ कतिपय प्रज्ञात तथ्य ] मूल आध्यात्मिक रूप में येन केन प्रकारेण चलते रहे जैनधर्म का इतिहास तो उक्त अवधि में धूमिल रहा और उसके मूलगुण वीतरागभाव से कोसों दूर बाह्य आडम्बरपरक बाह्य भक्ति का इतिहास लोकप्रिय और लोक विश्रुत होकर बढ़ता रहा । शनैः शनै: आध्यात्मिक उपासना का स्थान बाह्य प्राडम्बरपूर्ण भौतिक पाराघना ने और भावार्चना का स्थान द्रव्य अर्चना-द्रव्य पूजा ने ग्रहण करना प्रारम्भ किया। आकर्षक बाह्य आडम्बर पूर्ण धार्मिक कार्य-कलापों की पोर जन-साधारण का ध्यान आकर्षित होने लगा और जनमत उस ओर झुकने लगा। लोक प्रवाह को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए बाह्य आडम्बरपूर्ण द्रव्य पूजा, द्रव्यार्चना के नित नये विधि विधान, तौर तरीके प्रकार आदि आविष्कृत किये जाने लगे। द्रव्य पूजा के आविष्कारक उन श्रमणों की प्रसिद्धि से प्रभावित होकर श्रमण वर्ग के बहुसंख्यक श्रमण व श्रमणी गण इस प्रकार की द्रव्य परम्पराओं के पोषक बन गये । जो परम्परा बहिरंग आराधना के द्रव्यार्चना के जितने अधिक आकर्षक प्रकारों का आविष्कार प्रचार व प्रसार करने और अपने उन आकर्षक आयोजनों से जितने अधिकाधिक लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल हुई वही परम्परा सर्वश्रेष्ठ एवं सबसे बड़ी समझी जाने लगी । श्रमण व श्रमणी वर्ग भी बहुत बड़ी संख्या में आध्यात्मिक साधना के पथ का परित्याग कर आडम्बरपूर्ण भौतिक पाराधना का पथिक एवं पथ प्रदर्शक बन गया। इसका घातक दुष्परिणाम यह हा कि श्रमण भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित जैन धर्म के नितान्त अध्यात्मपरक स्वरूप में आमूलचूल परिवर्तन हो गया। श्रमरण भगवान महावीर ने धर्म तीर्थ की स्थापना करते समय संसार के षड्जीवनिकाय के घोर कष्टों का अनुभव करते हुए भव्यों को उनकी रक्षा का उपदेश दिया था। प्रभु ने कहा था : अट्टे लोए परिजुण्णे दुस्संबोहे अविजाणए । अस्सिं लोए पव्वहिए तत्थ तत्थ पुढो पास आतुरा परितावेति ।........ ....."संति पाणा पुढो सिया लज्जमाणा पुढो पास प्रणगारामो त्ति एगे पवयमारणा जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहिं पुढविकम्म समारंभेणं पुढविसत्यं समारंभेमारणा अण्णे प्रणेगरूवे पारणे विहिंसइ । तत्थ खलु भगवयः परिण्णा पवेइया, इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदण, मारपण, पयरणाए, जाइ मरण मोयणाए, दुक्खपडिघाय हेउं से सयमेव पुढविसत्यं समारंभइ,"""""समारंभावेइ,...""समारंभंते समणुजाणइ । तं से अहियाए तं से अबोहिए.... (प्राचारांग सूत्र प्रथम श्रु तस्कंध द्वितीय उद्देशक) अर्थात् पृथ्वीकाय आदि षड्जीवनिकायों के जीव पीड़ित हैं और दुखित हैं। इन पीड़ित जीवों का लोग प्रारम्भ समारम्भ कर इनको घोर कष्ट पहुंचाते हैं । कुछ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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