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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
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संसार शून्य-सा प्रतीत हो रहा है। केवल आप ही उसको पाटलिपुत्र से यहां लाने में सक्षम हैं अतः मुझ पर कृपा कर आप पाटलिपुत्र जाकर मेरे परमप्रिय पुत्र भोज को यहां ले पाइये । मैं जीवन भर आपका कृतज्ञ रहूंगा।"
प्राचार्यश्री दुन्दुक के अन्तर्मन में निगूढ़ रहस्य को भलीभांति जानते थे, अतः कुछ समय तक तो यह कह कर दुन्दुक की बात को टालते रहे कि अभी वे अमुक ध्यान की साधना में निरत हैं, उसके पूरा होने पर परमावश्यक योग की साधना करेंगे और तदनन्तर वे पाटलीपुत्र जाकर भोज को ले आयेंगे । इस प्रकार दुन्दुक की प्रार्थना को समय-समय पर किसी न किसी कल्पित अपरिहार्य कारण के ब्याज से टालते हुए आमराज की मृत्यु के पश्चात् की जो पांच वर्ष की अपनी आयुष्य अवशिष्ट रही थी, उसमें से पर्याप्त समय व्यतीत कर दिया।
___अन्त में महाराजा दुन्दुक के हठाग्रहपूर्ण अन्तिम अनुरोध पर प्राचार्य बप्पभट्टी को अवश हो पाटलीपुत्र की ओर प्रस्थित होना ही पड़ा। अनुक्रमशः पाटलीपुत्र की ओर अग्रसर होते हुए जब वे पाटलीपुत्र के समीप पहंचे तो उन्होंने विचार किया--"यदि मैं राजकुमार भोज को पाटलीपुत्र से कान्यकुब्ज ले जाता हैं तो यह निश्चित है कि वह दुष्ट राजा दुन्दुक राजकुमार भोज की हत्या करवा. देगा। और यदि नहीं ले जाता हूं तो वह क्रूर दुन्दुक मुझसे और मेरे धर्मसंघ से रुष्ट हो जिनशासन को अनेक प्रकार की हानि पहुंचा कर मेरे समस्त शिष्य समूह को अपने राज्य की सीमा से बाहर निकाल देगा और इस प्रकार जिनशासन पर भयंकर वज्राघात होगा। ऐसी दशा में मेरी प्रायु के कतिपय अवशिष्ट दिनों को यहां अनशनपूर्वक ही बिता देना सभी दृष्टियों से श्रेयस्कर होगा ।"
इस प्रकार विचार कर आचार्य बप्पभट्टी ने पालोचना द्वारा आत्मशुद्धि कर पाटलीपुत्र के उस समीपस्थ स्थान में अनशनपूर्वक पादपोपगमन संथारा अंगीकार कर लिया और पंच परमेष्टि की शरण ग्रहण कर वे अध्यात्म ध्यान में लीन हो गये । इस प्रकार समभावपूर्वक क्षुधा, तृषा आदि सभी पीड़ाओं को सहन करते हए २१ अहोरात्र तक एकाग्र मन से प्रात्म-चिन्तन करते हुए अपना ६५ वर्ष का प्रायुष्य पूर्ण कर वि० सं० ८६५ (वीर नि० सं० १३६५) की श्रावण शुक्ला ८ के दिन चन्द्र का स्वाति नक्षत्र के साथ योग होने पर महान् प्रभावक प्राचार्य बप्पभट्टी ने स्वर्गारोहण किया।'
प्राचार्य बप्पभट्टी के कृपा प्रसाद के कारण राजकुमार भोज का प्राण संकट टला था। अतः वह जीवन भर अपने उपकारी महान् आचार्य बप्पभट्टी के उत्तराधिकारियों एवं धर्मसंघ का परम भक्त बना रहा। बप्पभट्टी के स्वर्गारोहरण के कुछ ' शर-नन्द-सिद्धिवर्षे (८९५), नभः शुद्धाष्टमी दिने । स्वातिभेऽजनि पञ्चत्वमामराज गुरोरिह ॥७४१।।
(प्रभावक चरित्र)
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