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________________ ६१० ] | जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३ जिनशासन – महाप्रभावक प्राचार्य सिद्धसेन की ही भांति निरन्तर सुदीर्घ काल तक श्रमराज के संसर्ग में, सन्निकट सन्निधि में रहने के कारण श्रमरणधर्म की मूल मर्यादा के उल्लंघन के अपवाद न रह सके । जीवन भर राज परिवार के अत्यधिक सनिकट रहने के फलस्वरूप अपने जीवन के अन्तिम समय में, जबकि वे ६० वर्ष की श्रायु को पार कर ६५ वर्ष की आयु के आस- पास पहुंच रहे थे, प्राचार्य बप्पभट्टी को राजसंसर्ग के दुष्परिणाम के रूप में अन्तर्द्वन्द्व एवं मानसिक अशान्ति में उलझना पड़ा । उनको अन्तद्वन्द्व और मानसिक अशान्ति का अनुभव अपने. सुदीर्घकालीन घनिष्ठ राजसंसर्ग के कारण ही हुआ । राजा दुन्दुक बड़ा ही निष्क्रिय, दुराचारी और क्रूर निकला । दुराचार में पड़कर वह अपने महा तेजस्वी और होनहार पुत्र भोज तक को अकाल में ही काल का कवल बनाने का षडयन्त्र करने लगा । राजरानी को जब इस षड्यन्त्र का पता चला तो गुप्त रूप से संदेश भेजकर अपने भाई — पाटलीपुत्र के राजकुमार को कान्यकुब्ज बुलवाया और एक अत्यावश्यक कार्य के ब्याज से वह अपने भाई के साथ अपने पितृगृह पाटलीपुत्र की प्रोर प्रस्थित हुई । राजकुमार भोज ने सुपुत्र होने के नाते अपने पिता महाराजा दुन्दुक की प्राज्ञा लेना आवश्यक समझा और वह राजा के राजप्रसाद की ओर प्रस्थित हुआ । राजकुमार भोज को मौत के घाट उतार दिये जाने के षड्यन्त्र का आचार्य बप्पभट्टी को पता चल गया था । अतः उन्होंने राजकुमार भोज को षड्यन्त्र से सावधान करते हुए उसे दुन्दुक से बिना मिले ही तत्काल अपनी माता के साथ पाटलीपुत्र चले जाने का परामर्श दिया। प्राचार्य बप्पभट्टी की दूरदर्शिता पूर्ण कृपा से राजकुमार भोज मृत्य के मुख से निकल कर अपने नाना पाटलीपुत्र के महाराजा के पास चला गया । जब दुन्दुक को ज्ञात हुआ कि राजकुमार भोज भी अपनी माता और अपने मातुल के साथ पाटलीपुत्र चला गया है, तो उसे बड़ा दुःख हुआ । उसने अच्छी तरह सोच-विचार के पश्चात् निर्णय किया कि केवल आचार्य बप्पभट्टी ही किसी न किसी उपाय से पाटलीपुत्र नरेश को भलीभांति समझा-बुझा कर राजकुमार को पाटलीपुत्र से यहां ला सकते हैं, उनके अतिरिक्त यह कार्य अन्य किसी के वश का नहीं है । इस प्रकार विचार कर राजा दुन्दुक ने एक दिन प्राचार्यश्री बप्पभट्टी से निवेदन किया- "आचार्य महाराज ! अपने प्राणाधिक प्रिय पुत्र भोज के बिना मुझे यह . सब राज्यवैभव अच्छा नहीं लग रहा है । भोज की अनुपस्थिति में मुझे यह समग्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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