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वीर सम्बत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
[ ६०६ राजा आम ने बप्पभट्टी के मुखारविन्द से पंचपरमेष्टि नमस्कार मन्त्र का श्रवण करते हुए मगटोड़ा ग्राम के पास गंगा के जल में विक्रम सं० ५६० की भाद्रपद शुक्ला पंचमी, शुक्रवार चित्रा नक्षत्र में दिन के अन्तिम प्रहर में अपनी इहलीला समाप्त की। बप्पभट्टी कान्यकुब्ज लौटे और राजा प्राम द्वारा पूर्व में उनके लिये नियत भवन में रहने लगे।'
राजसंसर्ग का दुष्परिणाम प्राचार्य बप्पभट्टी जीवन भर राजगुरु के रूप में राजा आम के निकट सम्पर्क में रहे । इसके भनेक सुपरिणाम भी हुए। प्रथम तो यह कि जैनसमाज को राज्याधय प्राप्त रहा । राजमान्य धर्म होने के कारण जैनधर्म का लोकप्रवाह की बदली हुई परिस्थितियों में भी वर्चस्व रहा। बप्पभट्टी के उपदेश एवं परामर्श से अनेक लोक कल्याणकारी कार्यों के साथ-साथ जैनधर्म की प्रभावना एवं प्रचार प्रसार के कार्य भी राजा तथा प्रजा दोनों के द्वारा किये गये । बप्पभट्टी के राजसंसर्ग से जैन समाज की शक्ति और प्रतिष्ठा में उल्लेखनीय अभिवद्धि हई। बप्पभट्टी के राजसंसर्ग से ये सब सुपरिणाम तो हुए। किन्तु एक सर्वारम्भ परित्यागी, ब्रह्मचारी, पंच महाव्रतधारी, निस्संग, अलौकिक महान् प्रतिभाशाली श्रमणश्रेष्ठ होते हुए भी निरन्तर राजसंसर्ग में रहने अथवा राजा के सन्निकट सहवास में रहने पर आगमानुसारी विशुद्ध श्रमणाचार का पालन किस सीमा तक कर पाता है, इस तथ्य पर यदि निष्पक्ष दृष्टि से विचार किया जाय तो बड़ी निराशा होती है । छत्र, चामर, सिंहासन, हस्ती, पालकी आदि वाहनों का उपयोग, नियत निवास, आधाकर्मी माहार आदि जिन बातों के सेवन का शास्त्रों में श्रमण के लिये कड़ा निषेध है, जिनके सेवन से श्रमण धर्म के खण्डित होने का शास्त्रों में स्पष्ट उल्लेख है, निरन्तर राजसंसर्ग में, राजसन्निधि में रहा हम्रा कोई भी श्रमण, चाहे वह कितना ही उच्चकोटि का विद्वान् अथवा अलौकिक प्रतिभा का धनी श्रमरणोत्तम ही क्यों न हो, उसके लिये भी शास्त्रों द्वारा निषिद्ध उन चामरादि के सेवन से श्रमण धर्म की स्खलना से एवं उसके उल्लंघन से बच पाना संभव नहीं है। अन्यान्य विद्वान् प्राचार्यों द्वारा लिखी गई कृतियों में तथा आचार्य प्रभाचन्द्र द्वारा प्रभावक चरित्र में बप्पभट्टी के जीवन की घटनामों के जो विवरण उल्लिखित हैं, उनके प्राधार पर स्पष्टतः प्रकट होता है कि प्राचार्य बप्पभट्टी भी
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' मा भूत् संवत्सरोऽसौ वसुशतनवतेर्मा च ऋक्षेषु चित्रा, धिग्मासं तं नमस्यं क्षयमपि स खलः शुक्लपक्षोऽपि यातु । संक्रान्तिर्या प सिंहे विशतु हुतभुज पंचमी या तु शुके, गंगातोयाग्निमध्ये त्रिदिवमुपगतो यत्र नागावलोकः ।।७२४।।
(प्रभावक चरित्र, पृष्ठ १०६) For Private & Personal Use Only
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