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________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [ ६०७ - प्रश्न चूड़ामणिशास्त्र के अपने तलस्पशी ज्ञान के बल पर बप्पभट्टी ने राजा आम का पूर्वजन्म बताते हुए कहा--"राजन ! इससे पूर्व भव में तुम सन्यासी थे। कालिंजर पर्वत की उपत्यका में शाल्मली वृक्ष की शाखा पर अपने दोनों पैरों को बांधकर पैर ऊपर की ओर तथा सिर को नीचे की ओर लटकाये हुए तुमने १०० वर्ष तक तपश्चरण किया था। उस अवस्था में दो दिन तक निराहार रहने के पश्चात् तुम थोड़ा-थोड़ा आहार ग्रहण करते थे। आयु पूर्ण होने पर तुमने उस शरीर को उसी वृक्ष की शाखा पर लटकता हुआ छोड़ यहां जन्म ग्रहण किया और तुम राजा बने । यदि मेरे इस कथन पर तुम्हें विश्वास न हो तो राजपुरुषों को भेजकर अपनी वह जटा मंगवा लो।" ___सब को बड़ा कौतूहल हुा । तत्काल द्रुतगामी अश्वारोहियों को कालिंजर गिरि की उपत्यका के उस निर्दिष्ट स्थान पर भेजा गया। वहां जा कर राजपुरुषों ने बप्पभट्टी द्वारा निर्दिष्ट स्थान पर वृक्ष की एक शाखा पर लटकते हुए नरकंकाल (अस्थिपञ्जर) और टहनियों में उलझी हुई जटा को देखा । बड़ी सावधानी से उन्होंने उलझी लटों को सुलझा कर उस जटा को एकत्रित किया और उसे लेकर वे कान्यकुब्ज लौटे। जटा को देखते ही राजा, राजसभा के सदस्य और समस्त राजपरिवार आश्चर्याभिभूत हो बप्पभट्टी के दिव्य ज्ञान की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करने लगे। कालांतर में भामराज ने अपनी विशाल चतुरंगिणी सेना ले राजगिरि राज्य पर आक्रमण किया। भीषण नरसंहारकारी युद्ध के अनन्तर मामराज की, शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित शक्तिशालिनी सेना के समक्ष अपनी सैनिक शक्ति को अपर्याप्त समझकर दिन भर युद्ध करने के पश्चात् रात्रि में अपनी सेना के साथ राज गिरि के राजा ने अपने सुविशाल सुदृढ़ दुर्ग की शरण ली। प्रातःकाल शत्रु सेना को सन्मुख न पाकर मामराज ने राजगिरि के दुर्ग को चारों ओर से घेर लेने का प्रादेश दिया। तत्क्षण प्रामराज की सेना द्वारा राजगिरि के दुर्ग को घेर लिया गया। मामराज की सेना चारों ओर से एक साथ दुर्ग की पोर बढ़ी किन्तु राजगिरि के अधिपति समुद्रसेन की सेना ने पामराज की सेना को दुर्ग की ओर बढ़ने से रोक दिया। वह दुर्ग लोहे के समान सुदृढ़ था। राजा प्राम ने शाम, दाम, दण्ड, भेद मादि सभी नीतियों का प्रवलम्बन ले उस दुर्ग को तोड़ने के जितने उपाय सम्भव हो सकते थे वे सभी किये। दुर्ग पर अधिकार करने के लिये छिद्रान्वेषण भी किया गया किन्तु किसी भी उपाय से वह उस दुर्ग को तोड़ने में सफल नहीं हो सका। प्रामराज वस्तुतः हठी पौर बात का धनी था। उसने दुर्ग पर अधिकार करने का दृढ़ संकल्प कर लिया था। दुर्ग को तोड़ने का कोई उपाय दृष्टिगत न होने पर उसने बप्पभट्टी से प्रश्न किया-"भगवन् ! यह शैलाधिराज तुल्य दुर्गम दुर्ग कब और कैसे जीता जा सकेगा?" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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