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________________ ६०६ 1 [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३ तक पृथ्वी ही नष्ट हुई है और न समुद्र ही पृथ्वी बना है। बस, यही एक प्रत्यक्ष ष्टांत पर्याप्त है तुम्हारी शंका के निवारण के लिये ।” पूर्ण श्रात्मसंतोष की अनुभूति एवं हर्षातिरेक से वाक्पतिराज की रोमावली अंचित हो उठी । उसने हर्षगद्गद्स्वर में कहा - "भगवन्! आपकी कृपा से प्राज मुके वास्तविक तत्वबोध हुआ है, माज मेरे प्रन्तर्चक्षु उन्मीलित हुए हैं। मैंने इतना अमूल्य समय मोहलीला और भ्रान्तियों के वशीभूत हो व्यर्थ ही खो दिया । अब मुझे मार्ग-दर्शन कीजिये कि मैं भवभ्रमरण के मूल कारण कर्मबन्धनों को काटने के लिये साना मार्ग पर किस प्रकार अग्रसर हो शीघ्रातिशीघ्र शाश्वत शिवधाम मोक्ष का किारी बनू ं । भगवन् ! सर्वप्रथम मुझे श्रमरणधर्म की दीक्षा दीजिये ।" बप्पभट्टी ने वाक्पतिराज को विधिवत् श्रमणधर्म की दीक्षा प्रदान की । श्रमण धर्म अंगीकार करने के पश्चात् वाक्पति राज विशुद्ध संयम की परिपालना के साथ-साथ पंच परमेष्टि की प्राराधना करते हुए कर्ममल को नष्ट करने में तत्पर हुए। मुनि वाक्पतिराज ने समस्त पापों की आलोचना कर अनशन व्रत अंगीकार किया और १६ दिन तक निरन्तर भ्रात्म विशुद्धि करते हुए स्वर्गारोहण किया । मुनि वाक्पतिराज के स्वर्गस्थ होने के पश्चात् प्राचार्य बप्पभट्टी कुछ दिनों तक गोकुल में रहे। वहां उन्होंने भगवान् शान्तिनाथ की स्तुति करते हुए "शान्तिकर सर्वभयहरणस्तोत्र” की रचना की, जो भाज भी श्रद्धालु साधकों में बड़ा लोकप्रिय है । तदनन्तर गोकुल से विहार कर बप्पभट्टी पुनः कान्यकुब्ज लौटे । ग्रामराज ने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहा - "प्राचार्यदेव ! प्रापकी वारणी में प्रमोघ शक्ति है । वाक्पतिराज जैसे उच्चकोटि के विद्वान् को भी आपने जैन बनाकर श्रमरण धर्म में दीक्षित कर लिया ।" बप्पभट्टी ने कहा - "राजन् ! मैं प्रपनी वारणी की शक्ति तो तब प्रमोष समझ जब कि तुम प्रबुद्ध हो जैन धर्म स्वीकार करो ।” इस पर ग्रामराज ने कहा- "भगवन् ! वस्तुत: मैं जैनधर्म से पूर्णरूपेण प्रभावित हुआ हूं किन्तु पूर्व जन्म के संस्कारों के कारण मुझे शैवधर्म बड़ा प्रिय है अतः मैं इसका परित्याग नहीं कर सकता ।” बप्पभट्टी ने कहा- "राजन् पूर्व जन्म में तुमने अज्ञान तप करते हुए घोर कष्ट सहन किया । उसके फलस्वरूप तुम्हें यह राज्य मिला है।" यह सुनते ही सभी सभासदों को बड़ा प्राश्चर्य हुआ और उन्होंने राजा ग्राम के पूर्वजन्म का विवरण बताने के लिये बप्पभट्टी से अनुरोधभरी प्रार्थना की । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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