________________
भीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
[ ६०३
को परामर्श देते हुए कहा-"परीक्षापूर्वक तुम जैन धर्म को विधिवत् अङ्गीकार कर लो।"
आमराज ने कहा- “महात्मन् ! यों तो मैं पूरी परीक्षा के पश्चात् जैन धर्म को हो मानता हूं किन्तु मेरा मन शवधर्म में अनुरक्त है। मुझे आप अन्य और किसी भी कार्य के लिये कह दीजिये परन्तु मेरे पैतृक धर्म शवधर्म को छोड़ने के लिये कृपा कर न कहिये और आप रोष न मानें तो एक बात कहूं ?"
"हां, हां राजन् ! अवश्य कहो।"
ईषत् परिहास की मुद्रा में ग्रामराज ने कहा-"भगवन् ! मथुरा के वराह मन्दिर में वाक्पतिराज संन्यस्त हो गले में यज्ञोपवीत एवं रुद्राक्ष की मालाएं धारण किये, हाथ में तुलसी की माला लिये संन्यासियों तथा रासगान-रसिक कृष्ण भक्तों की भीड़ से घिरा हुमा पुराण पुरुषोत्तम परब्रह्म की नासाग्र दृष्टि किये एकाग्रचित्त से प्राराधना कर रहा है । उसे आप जैन धर्म अङ्गीकार करवा दीजिये।"
राजा आम की बात सुन कर बप्पभट्टी तत्काल मथुरा जाने के लिये उद्यत हो गये । कालांतर में वे मथुरा पहुंचे। वे वराह मन्दिर में गये। वहां उन्होंने देखा कि पामराज द्वारा बताई गई अवस्था में ही संन्यासी का वेष, रुद्राक्ष की मालाएं, यज्ञोपवीत आदि धारण किये वाक्पतिराज तुलसी माला हाथ में लिये ध्यानस्थ हो पारब्रह्म परमेश्वरप्रयो की माराधना कर रहे हैं।
वाक्पतिराज के चित्त की एकाग्रता की परीक्षा हेतु बप्पभट्टो ने निम्नलिखित श्लोकों का सस्वर पाठ प्रारम्भ किया :
"रामो नाम बभूव हुं तदबला सीतेति हुं तां पितु, वांचा पञ्चवटीवने विचरतस्तामाहरद् रावणः । निद्रार्थं जननीकथामिति हरेहुंकारिणः शृण्वतः, सौमित्रेय धनुर्धनुर्धनुरिति व्यक्ता गिरः पान्तु वः ।।५७२।। दर्पणार्पितमालोक्य मायास्त्रीरूपमात्मनः । मात्मन्येवानुरक्तो वः, श्रियम् दिशतु केशवः ।।५७३।। उत्तिष्ठन्त्या रतान्ते भरमुरगपती पाणिनेकेने कृत्वा, धृत्वा चान्येन वासो विगलितकबरीभारमंसं वहत्याः । सद्यस्तत्कायकातिद्विगुणितसुरतत्रीतिना शौरिणावः, शय्यामालिंग्य नीतं वपुरलसलसद्वाह लक्ष्म्याः पुनातु ।।५७४।। सन्ध्यां यत्प्रणिपत्य लोकपुरतो बद्धांजलिर्याचते, वत्से यत्त्वपरा विलज्ज शिरसा तच्चापि सोडं मया । श्रीर्जातामृतमन्थने यदि हरेः कस्माद् विषं भक्षितम्, मा स्त्रीलपट ! मां स्पृशेत्यभिहितो गौर्याः हरः पातु वः ।।५७५।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org