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________________ वीरसम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [ ६०१ परम प्रमुदित हुए। संघ का कार्यभार बप्पभट्टी को सम्हला कर उन्होंने आलोचनापूर्वक अनशन किया और समाधिपूर्वक रत्नत्रय की आराधना करते हुए परलोक-गमन किया। ___अपने आराध्य गुरुदेव प्राचार्य सिद्धसेन के स्वर्गवास के अनन्तर बप्पभट्टी ने मोढेरा ग्राम में रहते हुए संघ की समुचित रूप से व्यवस्था की और कुछ समय पश्चात् अपने मोढ़ गच्छ और संघ का कार्यभार गोविन्दसूरि एवं नन्नसूरि को सम्हला कर उन्होंने पामराज के प्रधानों के साथ कान्यकुब्ज की ओर प्रस्थान किया। कतिपय दिनों के पश्चात् वे पुनः कान्यकुब्ज पहुंचे। वहां कई वर्षों तक धर्मोपदेश देते हुए वे वहां राजा और प्रजाजनों की धर्मपथ पर पारूढ़ कर उन्हें उपकृत करते रहे। कालान्तर में एक दिन गौड़राज महाराजा धर्म ने पामराज के पास अपना दूत भेजकर एक प्रस्ताव रखा कि बौद्ध महावादी वर्द्धनकुन्जर उनके यहां लक्षणावती में आया हुआ है और वह शास्त्रार्थ के लिए देश विदेश के सभी वादी-प्रतिवादियों को शास्त्रार्थ के लिये चुनौती दे रहा है। किन्तु उसके साथ शास्त्रार्थ करने का कोई भी वादी साहस नहीं कर रहा है । ऐसी दशा में बप्पभट्टी और बौद्ध महावादी वर्द्धन कुन्जर के बीच शास्त्रार्थ करवाया जाय । प्रामराज ने इस पण के साथ शास्त्रार्थ की चुनौती को स्वीकार कर लिया कि जिसका वादी हार जायेगा, वह राजा अपना सम्पूर्ण राज्य विजयी वादी के पक्षधर राजाको समपित कर देगा। धर्मराज द्वारा इस पण के स्वीकार कर लिये जाने पर दोनों राज्यों की सीमा पर बौद्ध महावादी वर्द्धनकुन्जर के साथ प्राचार्य बप्पभट्टी का शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ । जय पराजय के किसी प्रकार के निर्णय के बिना उन दोनों विद्वानों के बीच शास्त्रार्थ निरन्तर ६ मास तक चलता रहा। __ अन्त में उस सौगत ने बप्पभट्टी को महामहिम महावादी बताते हुए उनकी विजय स्वीकार कर ली। पीठासीन निर्णायकों ने शास्त्रार्थ का निर्णय सुनाते हुए जैनाचार्य बप्पभट्टी को विजयी और सौगत वादी वर्द्धनकुन्जर को पूर्णतः पराजित घोषित किया। शास्त्रार्थ के इस निर्णय के बाद प्रामराज ने पूर्वकृत पण के अनुसार धर्मराज से अपना सम्पूर्ण राज्य समर्पित करने को कहा। महाराजा धर्म तत्क्षण अपना सम्पूर्ण गौड़ राज्य कान्यकुब्जेश्वर को समर्पित करने के लिए विधिवत् समुद्यत हो गया। किन्तु बप्पभट्टी के अनुरोध पर धर्मराज का राज्य यथावत् धर्मराज प्रायत्त ही रखना आमराज ने स्वीकार कर लिया। इसके परिणाम स्वरूप उन दो For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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