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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ विहितेत्रापि चेत्पूज्य प्रायाति प्राज्यपुण्यतः ।
अस्माभिः सह तद्देवा, प्रतुष्टा नो विचार्यताम् ।। इस रूप में प्रापसे निवेदन भी किया था, विज्ञप्ति भी की थी।"
धर्मराज के मुख से सहसा इस रूप में शोकोद्गार प्रकट हुए-“भगवन् ! मैं कितना मूढ़ हूं कि घर पाये हुए शत्रु का न तो स्वागत ही कर सका और न उसे साध ही सका । इन दोनों में से किसी एक भी विधि से चिरसंचित वैर का बदला न चुका सका। प्रस्तु, प्रबमापका वियोग किस प्रकार सहन किया जा सकेगा, इस विचार से मन उद्विग्न हो रहा है, खिन्न हो रहा है।"
प्राचार्य बप्पभट्टी ने महाराजा धर्म को 'संयोगा हि वियोगान्ताः' मादि सान्त्वनाप्रदायिनी तभ्योक्तियों एवं सूक्तियों से समझा-बुझा कर एवं पाश्वस्त कर लक्षणावती से विहार किया। गौर राज्य की सीमा के बाहर पामराज ने उनका स्वागत किया और वे सब साथ-साथ पुनः कन्नौज लौटे । पामराज ने बड़े ही हर्षोल्लास एवं अपूर्व महोत्सव के साथ प्राचार्य बप्पभट्टी का कन्नौज में नगर-प्रवेश करवाया।
तदनन्तर बप्पभट्टी कान्यकुब्ज में भम्यों को धर्मोपदेश देते हुए-जिनशासन का चहुंमुखी प्रचार-प्रसार एवं विकास करते हुए स्व-पर कल्याण में निरत रहने लगे।
कालान्तर में एक दिन एक संदेशवाहक ने बप्पभट्टी की सेवा में उपस्थित हो उन्हें उनके गुरु सिबसेन का संदेश दिया। उस संदेश में प्राचार्य सिखसेन मे लिखा था :--
"वत्स ! मेरी देहयष्टि जरा से जर्जरित और अंग-प्रत्यंग शिथिल हो गये हैं। नेत्रों की ज्योति क्षीणप्राया हो चुकने के कारण सब कुछ प्रस्पष्ट और धुंधला दिखाई देता है। ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ ही दिनों के प्राहुणक प्राण तुम्हारे मुखकमल को देखने की एकमात्र उत्कट अभिलाषा के बल पर ही शरीर में रुके हुए हैं। यदि तुम्हारे मन में मेरा मुख देखने की इच्छा हो तो शीघ्रतापूर्वक यहां मा जामो।"
अपने गुरु के इस सन्देश के प्राप्त होते ही बप्पभट्टी ने तत्काल कन्नौज से मोढेरा की भोर विहार किया। मामराज बड़ी दूरी तक उन्हें पहुंचाने पाया और विदा करते समय उसने अपने विश्वस्त. अधिकारियों एवं सेवकों को अपने गुरु के साथ भेजा।
उप विहारक्रम से बप्पभट्टीसूरि शीघ्र ही मोढेरा प्राम में अपने गुरु की मेवा में उपस्थित हए । अपने महान् प्रभावक शिष्य को देखकर माचार्य सिरसेन
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