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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
दूसरे ही दिन पामराज ने अपने विशिष्ट प्रतिभासम्पन्न अमात्य के साथ, प्राचार्य बप्पभट्टी की सेवा में एक पत्र प्रेषित किया, जिसमें क्षमायाचना के पश्चात् अन्तस्तलस्पर्शी भावपूर्ण भाषा में, उन्हें तत्काल कन्नौज लौट पाने की प्रार्थना की गई थी।
दूत अतीव द्रुतगति से लक्षणावती पहुंचा और उसने बप्पभट्टी के चरणकमलों में वह पत्र प्रस्तुत किया । पत्र को पढ़ते ही वे मानन्द-विभोर हो उठे।
उस दूत को, बप्पभट्टी ने, धर्मराज को दिये गये अपने वचन का विवरण सुनाते हुए कहा :-"जब तक प्रामराज अद्भुत् कौशल से स्वयं महाराजा धर्म के समक्ष उपस्थित हो मुझे अपने यहां पुनः ले जाने की बात न कह दें तब तक लक्षणावती न छोड़ने के लिये मैं वचनबद्ध हं। अत: पामराज से जाकर कह देना कि वे शीघ्र ही यहां आयें और हमारी प्रतिज्ञा को पूर्ण करें। जिससे कि मैं शीघ्र ही कान्यकुब्ज पा सकू।"
बप्पभट्टी ने गूढार्थपूर्ण छन्दों की रचना कर एतद्विषयक अपना सन्देश भी अमात्य के साथ प्रामराज के पास भेजा।
अपने अमात्य से प्राचार्य बप्पभट्टी के मौखिक एवं लिखित संदेश को पाकर महाराज प्राम, बप्पभट्टी की सेवा में उपस्थित होने के लिए मातुर हो उठा । गौड़ेश के साथ कान्यकुब्जेश की प्रगाढ़ शत्रुता थी। इसके उपरान्त भी अपने प्राणाधिक प्रिय आचार्य बप्पभट्टी को कन्नौज लाने के लिये अपने प्राणों तक के मोह का परित्यागकर मामराज प्रच्छन्न वेष में पहले बप्पभट्टी की सेवा में और तदनन्तर उनके साथ धर्मराज की राजसभा में धर्मराज के समक्ष भी जा उपस्थित हुआ।
बप्पभट्टी ने अनेकार्थक गूढ़ एवं अद्भुत श्लेषपूर्ण शब्दों में महाराजा धर्म को प्रामराज का परिचय दिया। प्रामराज ने भी उसी श्लेषपूर्ण नितरां प्रति निगूढ़ शैली में प्रच्छन्न रूप से अपना वास्तविक परिचय देते हुए बप्पभट्टी को कान्यकुब्ज ले जाने के लिये बड़े ही नाटकीय ढंग से राजा धर्म के समक्ष अपनी विज्ञप्ति प्रस्तुत कर दी।
' भामराजोऽप्यथ श्रीमान्प्रच्छन्न इवांशुमान् । विशिष्टः स्वार्थनिष्ठोऽगात्, स स्थगीघरकंतवात् ।।२३६।। मात्मविज्ञप्तिकां धर्मराजस्यादर्शयद् गुरुः । प्रागमिष्यद्वियोगाग्निज्वालामिव सुद्द स्सहाम् ।।२४०॥ वाचयित्वा च तां पृष्टो, दूतस्ते की दृशो नृपः । स प्राहास्य स्थगीभतु स्तुल्यो देव प्रबुभ्यताम् ।।२४१।।
[शेष टिप्पणी-सम्बन्ध ५६६ पर]
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