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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
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समस्यापूर्ति का प्रय' किया किंतु समस्यापूर्ति किसी भी कवि के द्वारा न किये जाने पर पामराज बड़ा खिन्न हुआ। उसके हृदय में बप्पमट्टी का वियोग शल्य के समान खटकने लगा। उसने स्पष्टतः अनुभव किया कि बप्पभट्टी के बिना न केवल उसकी राजसभा अथवा उसका राज प्रासाद ही अपितु उसका जीवन भी शून्य ही है।
उसने बप्पभट्टी को ढूढ़ने का दृढ़ संकल्प किया। विचार करते-करते उसने अन्ततोगत्वा एक उपाय खोज ही निकाला। मामराज ने एक पट्ट पर उस समस्या को अंकित करवाकर अपने राज्य में घोषणा करवा दी कि जो कोई भी व्यक्ति इस समस्या की पूर्ति कर देगा, उसे मामराज एक लाख स्वर्णमुद्राएं पारितोषिक के रूप में प्रदान करेगा।
द्यूतक्रीड़ा के दुर्व्यसन में फंसकर रंक बने एक विपन्न व्यक्ति ने इस समस्यापूर्ति को विपुल धनप्राप्ति का साधन समझ कर, उस समस्या को एक पत्र में लिखा और वह स्थान-स्थान पर बप्पभट्टी को खोजता हुमा अन्ततोगत्वा एक दिन लक्षणावती में बप्पभट्टी की सेवा में पहुंच ही गया। वन्दन-नमन के मनन्तर उसने प्राचार्य श्री के समक्ष वह श्लोकार्द्ध रखा । सारस्वतसिद्ध बप्पभट्टी ने तत्काल निम्नलिखित श्लोक का उच्चारण करते हुए समस्यापूर्ति कर दी : -
शस्त्रं शास्त्रं कृषिविद्या, अन्यो यो येन जीवति ।
सुगृहीतं हि कर्तव्यं, कृष्णसर्पमुखं यथा ॥ वह व्यक्ति लक्षणावती से कान्यकुब्ज लौटा और भामराज की सेवा में उपस्थित हो उसने पूरा श्लोक कान्यकुब्जेश के सम्मुख प्रस्तुत किया। मामराज समुचित समस्यापूर्ति से बड़ा प्रसन्न हुप्रा । तत्काल उस व्यक्ति को एक लाख स्वर्ण मुद्राएं प्रदान करते हुए आमराज ने पूछा --"भद्र ! वस्तुतः इस समस्या की पूर्ति किसने की है ? क्या तुम यह बता सकते हो?"
पूतम्यसनी ने उत्तर में कहा -"राजन् ! सरस्वती पुत्र बप्पभट्टीसूरि ने।"
"कहां हैं वे कविकुलकुमुदचन्द्र ?" हर्ष से अोतप्रोत औत्सुक्यपूर्ण स्वर में मामराज ने पूछा।
उत्तर की क्षण भर भी प्रतीक्षा न कर पामराज ने पुनः प्रश्न किया "क्या तुमने स्वयं ने उनको देखा है ?"
द्यूतव्यसनी ने कहा-'हां, महाराज ! मैंने स्वयं ने उनके दर्शन किये हैं । मैंने उनके समक्ष समस्या रखी और उन्होंने तत्काल समस्यापूर्ति कर दी। वे गौड़ापिप महाराज धर्म की राजसभा की शोभा बढ़ा रहे हैं।"
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