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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
बप्पभट्टी ने अपनी इन दोनों प्रतिज्ञाओं की जीवनपर्यन्त पूर्णरूपेण परिपालना के लिये अपने गुरु सिद्धसेन से तत्काल विधिवत् नियम ग्रहण किये।'
तदनन्तर कतिपय गीतार्थ मुनियों एवं आमराज के अमात्य आदि प्रधान पुरुषों के साथ अपने गुरु को प्रणाम कर प्राचार्य बप्पभट्टी कन्नोज की ओर प्रस्थित हुए। विहार क्रम से कतिपय दिनों के पश्चात् कन्नोज पहुंचे और नगर के बहिरस्थ एक उद्यान में ठहरे।
बप्पभट्टी के आगमन का समाचार सुनते ही आमराज हर्ष-विभोर हो उठा। उसने अपनी चतुरंगिणी सेना, अभिषेक हस्ती, सामन्तों, परिजनों एवं पौरजनों को विशाल जनमेदिनी के साथ आचार्यश्री बप्पभट्टी का बड़े महोत्सव के साथ नगरप्रवेश करवाया। इस प्रकार कान्यकुब्ज में रहकर प्राचार्य बप्पभट्टी अपने उपदेशामृत से राजा और प्रजा वर्ग को सन्मार्ग पर अग्रसर करने लगे। उनके प्रवचनों को सुनने के लिये प्रतिदिन दर-दूर से जनसमूह उद्वेलित सागर की लहरों के समान कान्यकुब्ज की ओर उमड़ते रहते।
बप्पभट्टी के उपदेशों में प्रामराज ने अनेक जनकल्याणकारी कार्य किये। प्रजाजनों के मानस में धर्मजागरण को अभिनव लहर उत्पन्न हुई और लोगों में धामिक तथा जनकल्याणकारी कार्यों के प्रति परस्पर होड़ सी लग गई। बप्पभट्टी के उपदेश से महाराजा आम ने दो मन्दिरों का निर्माण करवाया। राजगुरु के रूप में बप्पभट्टी की ख्याति दिग्दिगन्त में प्रसृत हो गई।
अप्रतिम प्रतिभा, पारगामी पांडित्य, वाचस्पति तुल्य वाग्मिता, अत्यद्भुत कवित्वशक्ति, प्रक्षोभ्य तार्किक बुद्धि और बड़े से बड़े प्रतिवादियों को शास्त्रार्थ में सहज ही परास्त कर देने वाले अप्रतिम वाद-कौशल प्रादि गुणों के कारण तथा पामराज्य के शासनकाल में जैनधर्म को राज्याश्रय प्राप्त होने के परिणामस्वरूप जिनशासन की उल्लेखनीय अभिवृद्धि हुई।
आमराज एकदा बप्पभट्टी के पास बैठा हुआ काव्य विनोद का रसास्वादन कर रहा था। उसने अपने अन्तःपुर के किसी रहस्यपूर्ण दृश्य पर गाथार्द्ध का निर्माण
' अथानुशिष्टो विधिवत्, गुरुभिब्रह्मरक्षणे । तारुण्यं राजपूजा च, वत्सानर्थद्वगं ह.यदः ॥१११।। आत्मरक्षा तथा कार्या, यषा न खन्यते भवान् । वामकामपिशाचेन, यत्यं तत्र पुनः पुनः ।।१५२।। भक्त भक्तस्य लोकस्य, विकृतिश्चाखिला अपि । प्राजन्म नैव भोक्ष्येऽहममुनियममग्रहीत् ॥११३।।
(प्रभावक चरित्र पृष्ठ ८३)
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