________________
वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती श्राचार्य ]
[ ५६३
श्रामराज ने राजोचित सम्मान के साथ बप्पभट्टी को अपने यहां रखा श्रौर अहर्निश अपना अधिकांश समय उनकी सेवा में रहकर धर्म चर्चा एवं काव्य विनोद में ही वह व्यतीत करने लगा ।
कतिपय दिनों के पश्चात् महाराजा ग्राम ने अपने श्रमात्यों एवं प्रभावशाली पौरजनों के साथ मुनि बप्पभट्टी को प्राचार्य सिद्धसेन की सेवा में इस प्रार्थना के साथ भेजा कि बप्पभट्टी को प्राचार्य पद प्रदान कर उन्हें शीघ्र ही पुनः कान्यकुब्ज भेजने की कृपा करें ।
भट्टीको प्राचार्य पद के सर्वथा योग्य समझते हुए प्राचार्य सिद्धसेन ने राजा श्राम की प्रार्थना स्वीकार कर ली और विक्रम सं० ८११ की चैत कृष्णा ८ के दिन शुभ मुहर्त्त में बप्पभट्टी को प्राचार्य पद प्रदान किया ।"
अपने महाप्रतिभाशाली शिष्य को अपने से दूर न रखने की प्रांतरिक इच्छा होते हुए भी धर्मभावना और ग्रामराज की अनुरोधपूर्ण प्रार्थना को ध्यान में रखते हुए आचार्य सिद्धसेन ने आचार्य बप्पभट्टी को कान्यकुब्ज के लिये विदा किया ।
बप्पभट्टी को कान्यकुब्ज की ओर विदा करते समय प्राचार्य सिद्धसेन ने आवश्यक शिक्षा देते हुए उनसे कहा- " वत्स ! तुम जिनशासन के उदीयमान ज्योतिर्मय नक्षत्र हो । तुम यौवन के प्रवेशद्वार की घोर अग्रसर हो रहे हो। तुम इस समय एक सुसमृद्ध जनपद के स्वामी महाराजा ग्राम के पूज्य होकर उसकी राजसभा में जा रहे हो । अपने सम्पूर्ण जीवन में तुम इस बात को कभी न भूलना कि तरुणावस्था और राजा द्वारा पूजित होना ये दोनों ही प्रकार की स्थितियां प्रायश: महान् अनर्थकारिणी होती हैं । अतः तुम अपने जीवन में सदा सजग रहकर विषय वासनाओं की खान नारि-संसर्ग से दूर रहते हुए कामदेव रूपी सम्मोहक पिशाच से सदा सावधानीपूर्वक आत्मरक्षा करते रहना ।"
अपने प्राराध्य गुरुदेव की शिक्षा को शिराधार्य करते हुए बप्पभट्टी ने कहा“भगवन् ! मैं अपने भक्तजनों के घर से कभी भोजन ग्रहण नहीं करूँगा । इसके साथ ही साथ मैं यह भी प्रतिज्ञा करता हूं कि मैं भविष्य में जीवनपर्यन्त दूध, दही, घृत, तेल और मीठा - इन पांचों ही विगयों अर्थात् विकृतिजनक पदार्थों का सेवन नहीं करूँगा ।"
' एकादशाधिके तत्र जाते वर्षशताष्टके, ( ८११) विक्रमात् सोऽभवत् सूरिः कृष्णचैत्राष्टमीदिने ।। ११५ ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
( प्रभावक चरित्र, पृ. ८३ )
www.jainelibrary.org