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वोर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
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प्रारम्भ किया और समुचित समय में, सभी विद्याओं एवं कलाओं में अद्भुत् प्रवीणता प्राप्त कर ली।
अपना अध्ययन पूर्ण हो जाने पर एक दिन राजकुमार आम ने अपने परम उपकारी गुरु सिद्धसेन के चरणों में मस्तक झुकाते हुए असीम कृतज्ञता भरे स्वर में उनसे निवेदन किया- "अकारण करुणाकर गुरुदेव ! आपने असीम अनुग्रह कर मुझ पर जो पारावार विहीन उपकार किया है, मैं जन्म-जन्मान्तरों तक भी उस ऋण के भार से कभी उऋण नहीं हो सकता।"
तत्पश्चात गुरु द्वारा किये गये उपकार के भार से अवनत राजकुमार आम ने अपने सखा ब्रह्मचारी मुनि बप्पभट्टी के पास आकर कहा - "महामुने! गुरुदेव
और आप द्वारा मुझ पर किये गये असीम उपकार के भार से मैं दबा जा रहा हूँ। यदि मुझे कभी कान्यकुब्ज का विशाल राज्य मिला तो मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि निश्चित रूप से मैं आपको राज्य दूंगा।'
किशोर मुनि बप्पभट्टी ने ईषत् स्मितपूर्वक बात को टालते हुए केवल इतना ही कहा-"राजकुमार ! हमारे इस निखिल विश्व के एकच्छत्र अध्यात्म साम्राज्य से भी बढ़कर संसार में अन्य और कोई राज्य है क्या ?"
राजकुमार आम के इस प्रकार सकल कलानिष्णात होने के कुछ ही दिनों अनन्तर कान्यकुब्जेश यशोवर्मा रुग्ण हो गया। अपना अन्तिम समय सन्निकट जानकर उसने अपने चरों को आज्ञा दी कि वे यथाशीघ्र राजकुमार आम को ढूढ़ कर ससम्मान उसके सम्मुख उपस्थित करें। कान्यकुब्जीय गुप्तचरों को स्वल्प श्रम से ही राजकुमार से साक्षात्कार हो गया। प्राचार्य सिद्धसेन की प्राज्ञा प्राप्त कर गुप्तचर अपने भावी राजराजेश्वर को लेकर कान्यकुब्जेश्वर को सेवा में पहुंचे।
यशोवर्मा ने बड़े ही हर्षोल्लासपूर्ण महोत्सव के साथ अपने पुत्र प्राम का कान्यकुब्ज के राज्यसिंहासन पर राज्याभिषेक किया। कान्यकुब्ज राज्य की विशाल चतुरंगिरणी सेना ने, जिसमें कि एक लाख अश्वारोही, एक लाख रथारोही, चौदह सौ गजारोही और एक कोटि पदाति थे, गगनवेधी जयघोषों के साथ अपने सद्यः अभिषिक्त कान्यकुब्जेश्वर महाराजा आम का सैनिक रीति से अभिवादन किया। यह बताई गई सैन्य संख्या शोधप्रिय विद्वानों के लिये विचारणीय है।
महाराजा ग्राम के राज्यसिंहासनाधिरूढ होने के कुछ ही समय पश्चात् उसके पिता महाराज यशोवर्मा का देहावसान हो गया। महाराजा आम ने अपने प्रधाना
' सब्रह्मचारिता सल्याद् राजपुत्र, प्रपन्नवान् । बप्पम ! प्रदास्यामि, प्राप्त राज्य तव ध्र वं ।।७।।
(प्रभावक चरित्र, पृ० ८२)
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