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________________ [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ परिणामस्वरूप महाराज ने मुझे कान्यकुब्ज राज्य से निर्वासित कर दिया। बाल्यकाल से ही आत्मसम्मान मुझे प्रारणों से भी अधिक प्रिय रहा है। अपने प्रात्मसम्मान की रक्षार्थ मैने हंसते-हंसते मृत्यु का आलिंगन करना सदा श्रेयस्कर समझा है । इसीलिये श्वसुर गृह से निर्वासित होने पर मैंने पिता के घर जाने की अपेक्षा अरण्य को शरण ग्रहण करना ही उचित समझा। यही कारण है कि मैं आत्मसम्मान के साथ स्वावलम्बो वन्य जोवन जी रही हूं।" ___ मैं उस समय उस स्वाभिमानिनो साहस की प्रतिमूर्ति राजरानी की निर्भीकता देखकर क्षण भर के लिये स्तब्ध रह गया था। अन्त में मैंने उसे सान्त्वना देते हुए कहा था-"वत्से ! नगरस्थ हमारे चैत्य में चल कर रहो। वहां चैत्य की शुश्रषा और इस पुण्यशाली महाप्रतापी पुत्र की प्रतिपालना करती हुई कुछ समय तक अपने माने वाले प्रच्छे दिनों की प्रतीक्षा करो।" मेरे परामर्श को स्वीकार कर अपने पुत्र को लिये हुए वह हमारे साथ ही नगर में आ गई थी और चैत्य की शुश्रूषा करने में लग गयी थी। दूसरे दिन हमने उस नगर से अन्यत्र विहार कर दिया। कुछ ही समय पश्चात् विहार काल में हमने सुना था कि राजरानी को निर्वासित करवाने वाली रानी का उसको सौतों द्वारा किये गये षड्यन्त्र के परिणामस्वरूप प्राणान्त हो गया है और कान्यकुब्जराज यशोवर्मा ने गुप्तचरों से खोज करवाकर उस महारानी और राजकुमार को हमारे चैत्य से ससम्मान बलवा कर अपने राजप्रासाद में पुनः रख लिया है।" ___ अपने स्मृतिपटल पर उभरी हुई इस पूर्व घटना के परिप्रेक्ष्य में प्राचार्य श्री सिद्धसेन ने परीक्षात्मक सूक्ष्म दृष्टि से राजकिशोर को ऐडी से चोटी तक निहारा मौर मन हो मन उन्हें विश्वास हो गया कि उन्होंने वनवासिनी राजरानी के जिस छोटे से शिशु को पूर्व में पोल वक्षों के झुण्ड की छाया में एक झोली में देखा था, वहीं यह राजकिशोर होना चाहिये । भव्य व्यक्तित्व के साथ-साथ जो प्रशस्त शुभलक्षरण इस किशोर में दृष्टिगोचर हो रहे हैं, वे राजपुत्र के अतिरिक्त अन्य किसी में प्रायः परिलक्षित नहीं हुमा करते । इस प्रकार विचार कर प्राचार्य सिद्धसेन ने सुधासिक्त स्वर में उस किशोर को सम्बोधित करते हुए कहा--"वत्स ! निश्चित हो अपने मित्र मुनि के पार्श्व में रहकर उनसे सभी प्रकार की कलाओं एवं विद्यामों का लगनपूर्वक समीचीन रूपेण अध्ययन करो।" समाचार्यश्री के निर्देशानुसार राजकुमार पाम मुनि बप्पभट्टी के साथ रहने में लगा। उसने प्रगाढ़ निष्ठा, श्रद्धा, अध्यवसाय तथा परिश्रमपूर्वक शास्त्रों का अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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