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________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [ ५८६ आचार्यश्री द्वारा अपना नाम पूछे जाने पर उसके विशाल आयत लोचनों के पलकयुगल ग्रीवा के साथ ही नीचे की ओर झुक गये और उसने खटिका से क्षितिपट्ट पर "प्राम' लिख दिया । नवागत किशोर के, इस उच्चकुलोद्भव जनोचित संस्कार सम्पन्न व्यवहार को देखकर आचार्य सिद्धसेन को विश्वास हो गया कि वस्तुतः वह कोई उच्च कुलोद्भव महा पुण्यशाली प्राणी है । उन्हें कुछ प्राभास सा हुआ कि इस किशोर को कुछ वर्ष पूर्व उन्होंने कहीं देखा है। उसी क्षण उनके स्मृतिपटल पर विगत प्रतीत में देखा हुआ एक दृश्य अंकित हो उठा । दश-ग्यारह वर्ष पूर्व रामसीरिण की विकट वनी में विचरण करते समय पीलू (जाल) वृक्षों के झुण्ड की छाया के नीचे वस्त्र की झोली में लेटे हुए छः मास की आयु के एक बालक पर उनकी दृष्टि पड़ी थी। उस छोटे से शिशु के अद्भुत लक्षणों को देखकर वे उसके सन्निकट खड़े हो गये और बड़ी देर तक उसकी ओर देखते ही रह गये। __ कतिपय क्षणों के पश्चात् उन्हें यह देखकर अत्यन्त प्राश्चर्य हुमा कि बालक के पास-पास चारों ओर छाया का स्थान धूप ले रही है किन्तु बालक के मुख-मण्डल और शरीर पर छाया पूर्व की भांति ही अचल है, सुस्थिर है। उसी समय उन्हें विश्वास हो गया था कि यह कोई महा पुण्यशाली प्राणी है। उनके मन में इस प्रकार का विचार उठा ही था कि आस-पास के वृक्षों से फलों को चुन-चुन कर एकत्रित करती हुई उस बालक की माता वहां पाई। उनने बड़ी शालीनता से भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। मुखाकृति से किसी उच्च कुल की कुलवधु प्रतीत होने वाली उस महिला से मैंने पूछा था-"वत्से ! तुम कौन हो, किस कुल की वधु हो और तुम्हारी इस विपन्नावस्था का कारण क्या है ? हम सब प्रकार के सांसारिक प्रपंचों से विनिमुक्त श्रमण हैं, अतः निस्संकोच हो बताने योग्य वास्तविक स्थिति हमारे समक्ष रख दो।" उस सम्भ्रान्त महिला ने कहा था- “महात्मन् ! आप जैसे सम शत्रु-मित्र विश्वबन्धु महायोगी से छूपाने योग्य कोई बात नहीं है। मैं कान्यकुब्जेश्वर महाराज यशोवर्मा की राजमहिषी हं । जिस समय यह बच्चा मेरे गर्भ में था, उस समय मेरे प्रति मेरी सपत्नी रानी का सातिया डाह अत्युग्र वेग से जागृत हुमा । पूर्व में महाराजाधिराज ने किसी समय मेरी उस सपत्नी के किसी कार्य से अत्यधिक प्रसन्न हो उससे यथेच्छ वर मांगने का प्राग्रह किया था। उसने वह वर उस समय न मांग कर महाराज के पास ही धरोहर के रूप में रख दिया था। मुझे गर्भवती देख कर ईर्ष्याभिभूता मेरी वह सपत्नी मेरे गर्भस्थ शिशु के जीवन को धूलिसात करने के लिये कटिबद्ध हो गई। उसने महाराज से उस वरदान की याचना की और उसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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