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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ नवदीक्षित मुनि की अलौकिक प्रतिभा पर मुग्ध हो मोढेरा के श्रीसंघ ने प्राचार्य सिद्धसेन से प्रार्थना की कि वे शिष्यवृन्द सहित मोढेरा में ही रह कर कुशाग्रबुद्धि नवदीक्षित बप्प भट्टी मुनि को अंगोपांगादि शास्त्रों एवं समस्त विद्यानों का अध्ययन करायें। संघ की अभ्यर्थना स्वीकार कर प्राचार्य सिद्धसेन अपने शिष्य. समूह सहित मोढेरा में ही रहे और नवदीक्षित मुनि को विद्याभ्यास कराने लगे। सुतीक्ष्ण बुद्धि मुनि बप्पभट्टो ने प्रगाढ़ निष्ठा, उत्कट लगन एवं अतिशय विनयपूर्वक विद्याध्ययन प्रारम्भ किया। उनकी उत्कट साधना से सरस्वती की उन पर अनन्य कृपा हो गई और वे स्वल्प समय में ही सब विद्याओं में निष्णात एवं अथाह आगमज्ञान के मर्मज्ञ महा विद्वान बन गये। उनकी अलौकिक काव्य-शक्ति को देख कर सर्व साधारण तथा उच्चकोटि के विद्वानों तक की यह धारणा बन गई कि साक्षात् सरस्वती उनके कण्ठों में सदा विराजमान रहती है।
एक दिन मुनि बप्पभट्टी शौचनिवृत्ति के पश्चात् जब जंगल से लौट रहे थे, तो उस समय सहसा वर्षा होने लगी। वर्षा से रक्षा हेतु वे एक देवमन्दिर में प्रविष्ट हुए। उसी समय एक अतीव तेजस्वी एवं सुन्दर क्षत्रिय राजकुमार भी वृष्टि से परित्राणार्थ उस चैत्य में पाया और मुनि को वन्दन कर वहां बैठ गया। उस क्षत्रिय कुमार की दृष्टि एक श्यामल शिलापट्ट पर उत्कीर्ण अभिलेख पर पड़ी। उसने उस अभिलेख को पढ़ना प्रारम्भ किया। गढ़ार्थ एवं रस से प्रोत-प्रोत उन काव्यों का अर्थ समझ में न आने पर उस क्षत्रियकुमार ने बप्पभट्टी से उन काव्यों को पढ़ने एवं उनका अर्थ समझाने की प्रार्थना की। बप्पभट्टी ने मधुर स्वर में काव्य-पाठ करते हुए क्षत्रियकुमार को उन श्लोकों का अर्थ समझाया। श्लेषपूर्ण श्लोकों के अद्भत रसपूर्ण अर्थ और बाल मूनि की व्याख्या शैली से वह क्षत्रिय किशोर आश्चर्याभिभूत एवं प्रानन्दविभोर हो उठा । वह बालक मुनि की अद्भुत प्रतिभा से पूर्णतः प्रभावित हो गया । वृष्टि रुकने पर वह पथिक क्षत्रिय किशोर मुनि के साथ-साथ सहर्ष वसति में पाया । मुनि बप्पभट्टी का अनुसरण करते हुए उस किशोर पान्थ ने भी प्राचार्यश्री को वन्दन-नमन किया।
नवागन्तुक किशोर के अन्तर्मन को आशीर्वचन से अभिसिंचित करते हए आचार्यश्री ने उसके ग्राम, कुल, माता-पिता आदि के सम्बन्ध में पूछा । उस किशोर ने अति विनम्र स्वर में अपना परिचय देते हए कहा--"जगद्वन्द्य योगीश्वर ! महायशस्वी सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य की वंश परम्परा में कान्यकुब्जेश्वर महाराज यशोवर्मा का यह अकिंचन पुत्र है। मेरी अमितव्ययी वृत्ति से व्यथित हो पितृदेव ने मुझे मितव्ययी वृत्ति अपनाने की शिक्षा दी। उस हितप्रद शिक्षा से भी मेरा अहं अत्युग्र वेग से जागृत हो अभिवृद्ध हो उठा और मैं माता-पिता को बिना कहे ही राजप्रासाद से एकाकी ही निकल पड़ा और अनेक स्थानों पर घूमता हुअा यहां आपश्री की चरण-शरण में उपस्थित हुआ हूं।"
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