________________
वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
[ ५८७
करने का मैंने दृढ़ निश्चय कर लिया है । मानव जन्म में बुद्धि, ज्ञान और श्रेष्ठ से श्रेष्ठतम गुणों को प्राप्त कर लेने के अनन्तर भी यदि नरकावास तुल्य मातृगर्भ में पुन: उत्पन्न होना पड़े तो वे सब गुरण निरर्थक हैं ।'
इस दुर्लभ मानव जन्म में मुझे बुद्धि, ज्ञान और सदसद् विवेक सम्पन्न पौरुष आदि गुरण मिले हैं, इन गुणों का मैं संयम ग्रहरण कर इस प्रकार उपयोग करूंगा कि मुझे पुनः कभी माता के गर्भावास का, जन्म-मृत्यु का दुःख भोगना ही नहीं पड़े । मेरा यह अटल, डल निश्चय है कि मैं श्रमरणधर्म की दीक्षा ग्रहण करूंगा ।"
अपने पुत्र के दृढ़ निश्चय को सुनकर क्षत्रिय दम्पत्ति ने कहा - " भगवन् ! हमारा पुत्र सूरपाल भी श्रमणधर्म में दीक्षित होने के लिये कृत-संकल्प है और आप भी इसे शिष्यरत्न के रूप में प्राप्त करना चाहते हैं । तो ऐसी स्थिति में हमारे इस एकमात्र कुलप्रदीप पुत्र के दीक्षित हो जाने पर हमारा तो कुल और नाम ही समाप्त हो जायगा । इसलिये एक प्रार्थना है कि श्राप इसे शिष्य के रूप में दीक्षित तो कर लें पर दीक्षित होने पर हम दोनों के नाम को चिरस्थायी रखने के लिये इसका नाम 'बप्प भट्टी' ही रखने की कृपा करें।"
आचार्य सिद्धसेन ने उनके इस आग्रह को स्वीकार कर लिया । तदनन्तर प्प और भट्टी ने अपना पुत्र सहर्ष प्राचार्य सिद्धसेन को समर्पित कर दिया । अपने अभीप्सित की सिद्धि से प्राचार्य सिद्धसेन को अपार हर्ष हुआ। सूरपाल जैसे महा मेधावी शिष्यरत्न को पाकर उन्होंने अपने आपको, अपने गच्छ को और जिनशासन को धन्य समझा ।
Na
बालक सूरपाल को साथ ले आचार्य सिद्धसेन अपने शिष्य समूह सहित सहर्ष मोढेरा लौट आये और वहां विक्रम सं० ८०७ की वैशाख शुक्ला तृतीया, गुरुवार के दिन उन्होंने सूरपाल को श्रमणधर्म की दीक्षा प्रदान की । दीक्षा प्रदान करते समय आचार्यश्री ने औपचारिक रूप से सूरपाल का नाम भद्रकीति रखा । किन्तु उसके माता-पिता को दिये गये वचन की परिपालना करते हुए प्राचार्यश्री नवदीक्षित मुनि को बप्प भट्टी के नाम से ही सम्बोधित करते रहे । अतः नवदीक्षित भद्रकीर्ति मुनि सर्वत्र बप्प भट्टी के नाम से ही विख्यात हो गये ।
१ सा बुद्धिविलयं प्रयातु कुलिशं तत्र श्रुते पात्यताम्, वल्गन्तः प्रविशन्तु ते हुतभुजि ज्वालाकराले गुणाः । यैः सर्वेः शरदेन्दुकुन्द - विशद प्राप्तंरपि प्राप्यते, भूयोऽप्यत्र पुरन्ध्रिरन्ध्रनरककोड़ाधिवास व्यथा ॥
२ मोढ़ेरे ते विहृत्यामु दीक्षित्वा नाम चादधुः । स्वाख्या त्रिकेकादशाद, भद्रकीर्तिरिति श्रुतम् ।।२६।। तत्पित्रो प्रतिपन्नेन, पूर्वाख्या तु प्रसिद्धिभूः । शिष्य मौलिमरणे रस्य, कलासंकेतवेश्मनः ॥३०॥
Jain Education International
( प्रबन्धकोष, पृ० २७ )
,
( प्रभावक चरित्र, पृष्ठ ८३ )
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org