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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३
श्राश्चर्याभिभूत हो अवाक् रह गये । उन्हें बालक सूरपाल साक्षात् सरस्वती पुत्र सा प्रतीत होने लगा । अब तो आचार्य सिद्धसेन उस शारदा-पुत्र तुल्य बालक सूरपाल को अपने शिष्य के रूप में पाने के लिये उत्कण्ठित एवं व्यग्र हो उठे ।
दूसरे ही दिन आचार्य सिद्धसेन अपने कुछ शिष्यों एवं उस बालक को साथ सूरपाल 'की जन्मभूमि डुबाउधी ग्राम की ओर प्रस्थित हुए । उग्र एवं अप्रतिहत विहारक्रम से वे कतिपय दिनों पश्चात् डुंबाउधी पहुंचे । मुनिदर्शन के लिये अन्य ग्रामवासियों के साथ क्षत्रिय बप्प और क्षत्राणी भट्टी ने भी आचार्यश्री की सेवा में उपस्थित हो उन्हें वन्दन- नमन किया ।
आचार्य सिद्धसेन ने क्षत्रिय दम्पत्ति से कहा - "पुण्यात्माओ ! तुम्हारा यह बालक महान् तेजस्वी, कुशाग्रबुद्धि, प्रतिभाशाली और बड़ा ही होनहार है । तुम अपना यह पुत्र मुझे दे दो। मैं इसे अध्यात्मविद्या में पारंगत बना दूंगा । इसके
लौकिक लक्षणों से स्पष्टतः प्रकट होता है कि यह तुम्हारा बालक भविष्य में जिनशासन का महान् उन्नायक होगा और तुम्हारी कीर्ति को युगयुगान्तर तक चिरस्थायिनी बना देगा ।"
क्षत्रिय बप्प और उसकी पत्नी क्षत्रियाणी भट्टी ने हाथ जोड़कर प्रति विनम्र स्वर में आचार्यश्री से निवेदन किया- " योगीश्वर ! हमारा यह एकमात्र पुत्र ही तो हमारे कुल और हमारी आशाओं का केन्द्र-बिन्दु तथा हमारे जीवन का आधार है । इसका विछोह हम किस प्रकार सहन कर सकेंगे ?"
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आचार्य सिद्धसेन ने उन्हें पुन: समझाते हुए कहा"भव्यो ! जिस प्रकार कूड़े के ढेर में असंख्य कृमि उत्पन्न होते हैं और मरते हैं, उसी प्रकार इस संसार रूपी अवकर (घूड़े) में पुत्र उत्पन्न होते रहते हैं और मरते रहते हैं । कृमि तुल्य उस जन्म और मरण का कोई सार नहीं, कोई मूल्य नहीं । तुम्हारा यह परम सौभाग्यशाली सुभव्य पुत्र जन्म-मरण की महाव्याधि को मूलतः विनष्ट करने वाले श्रमण धर्म की आराधना करके अपने आपकी और तुम्हारी कीर्ति को अमर करने के लिये कृतसंकल्प है । इसका यह सुसंकल्प श्लाघ्य है । अत: तुम अपना यह पुत्र हमें समर्पित कर विपुल पुण्य का उपार्जन करो ।”
इस पर भी बप्प और भट्टी ने प्रा० सिद्धसेन से निवेदन किया- "भगवन् ! यह हमारा एक मात्र ही तो कुलदीपक है । श्राप स्वयं ही विचार कीजिये कि हमारे एक मात्र इस कुलतन्तु पुत्र को कैसे दिया जा सकता है ?"
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इसी बीच बालक सूरपाल ने अपने माता-पिता को सम्बोधित करते हुए कहा – “अम्ब ! तात ! भीषण नरकावासों के दुस्सह्य दुःखों के समान दारुण दुःखदायी गर्भावास से सदा-सदा के लिये मुक्ति दिलाने वाले श्रमरणधर्म को अंगीकार
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