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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्त्ती प्राचार्य ]
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विहार कर अनेक स्थानों में विचरण करते हुए मोढ़ेरा ग्राम में पहुंचे । मोढ़ेरा में प्राचार्य सिद्धसेन ने रात्रि की अवसान वेला में सुखप्रसुप्तावस्था में स्वप्न देखा कि एक महान् तेजस्वी सिंहशावक छलांग भर कर चैत्य के उच्चतम शिखर पर जा बैठा है । उस उत्तम स्वप्न को देखते ही आचार्य सिद्धसेन की निद्रा भंग हुई । प्रातः काल उन्होंने अपने शिष्य वृन्द को अपना स्वप्न सुनाते हुए कहा - " रात्रि की अवसान वेला में देखे गये इस स्वप्न के फल पर विचार करने से ऐसा प्रतीत होता है कि प्रसन्न भविष्य में ही हमें एक ऐसे शिष्यरत्न की प्राप्ति होने वाली है, जो जिनशासन की प्रतिष्ठा को उन्नति के उच्चतम शिखर तक पहुंचा देगा ।"
स्वप्न द्वारा सूचित सुखद सुन्दर फल के चिन्तन में श्रानन्दविभोर शिष्यवृन्द के साथ प्राचार्य श्री सिद्धसेन महावीर के मन्दिर में गये ।
संयोगवशात्, बिना किसी लक्ष्यस्थल के इधर-उधर घूमता हुआा बालक सूरपाल भी मोढ़ेरा के उसी जैन मन्दिर में श्रा पहुंचा । श्राचार्य सिद्धसेन की सूक्ष्मदर्शी दृष्टि बालक सूरपाल पर पड़ी। बालक की अलौकिक तेजस्वितापूर्ण प्रतिभा को देखते ही आचार्य सिद्धसेन के अन्तस्तल में स्नेहसागर तरंगित हो उठा ।
उन्होंने बालक के पास जाकर उसके नाम-धाम, माता-पिता- कुल आदि के सम्बन्ध में उससे पूछा । बालक सूरपाल ने प्रति विनम्र स्वर में अपने माता-पिता, ग्राम एवं अपना पूरा परिचय प्राचार्य श्री को दिया। बालक सूरपाल की वाग्माधुरी विनम्रता एवं निर्भयता से प्राचार्य श्री को श्रतिशय श्रानन्द का अनुभव हुआ । स्नेहसुधासिक्त स्वर में उन्होंने बालक से प्रश्न किया- सौम्य ! क्या तुम हमारे पास रह जाओगे ?"
बालक ने तत्काल स्वीकृतिसूचक हर्षविभोर मुद्रा में उत्तर दिया :- "देव ! आपकी चररण शरण में रहने से बढ़ कर मेरे लिये परम पुण्योदय का और अन्य क्या प्रतिफल हो सकता है ।" यह कहते हुए उस बालक ने अपना मस्तक आचार्य श्री सिद्धसेन के चरणसरोरुहों पर रख दिया । अपने मधुर स्वप्न को सद्य: साकार होता देखकर प्राचार्य सिद्धसेन को आन्तरिक तोष के साथ-साथ असीम आनन्द की अनुभूति हुई । बालक सूरपाल को अपने साथ लिये वे अपने उपाश्रय में लौटे। प्रारम्भिक बोध के साथ-साथ उन्होंने बालक सूरपाल को धार्मिक शिक्षरण देना प्रारम्भ किया । श्राचार्य श्री के मुखारविन्द से एक बार सुनने मात्र से ही उसे पूरा पाठ तत्काल कंठस्थ हो जाता । आचार्य श्री उस मेधावी बालक की अलौकिक प्रतिभा एवं अद्भुत मेघाशक्ति से ज्यों-ज्यों, उत्तरोत्तर अधिकाधिक प्रभावित होते गये, त्यों-त्यों उनकी अध्यापनरुचि भी बढ़ती गई और वे उसे अधिकाधिक पाठ देने लगे । एक दिन शिक्षार्थी बालक सूरपाल को आचार्य श्री ने अनुष्टुप छन्द के १००० श्लोकों का लम्बा पाठ दिया । सूरपाल ने उसी दिन एक हजार श्लोकों को कण्ठाग्र कर जब आचार्य श्री को सार्थ सुनाया तो समस्त मुनिमण्डल सहित आचार्य श्री
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