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बप्पभट्टी सूरि
तेतीसवें युगप्रधानाचार्य संभूति तथा चौतीसवें युग प्र० प्राचार्य माढरसंभूति के युग प्रधानाचार्य काल के प्रभावक एवं महावादी प्राचार्य बप्पभट्टी सूरि का जन्म पांचाल प्रदेशस्थ डुम्बाउघी ( साम्प्रत कालीन डुवा ) ग्राम के क्षत्रिय बप्प की धर्मपत्नी भट्टी की कुक्षि से वि० सं० ८०० में भाद्रपद तृतीया रविवार के दिन हस्त नक्षत्र में हुआ ।
बप्प क्षत्रिय ने अपने पुत्र का नाम सूरपाल रखा । बालक बड़ा तेजस्वी था । वह शुक्लपक्ष की द्वितीया के चंद्र की कलाओं के समान अनुक्रमशः बढ़ने लगा । अनेक प्रसंगों पर जब उसने अपने माता-पिता एवं बन्धुवर्ग से यह सुना कि उसके पिता एक राज्य के स्वामी थे । शत्रुनों ने दुरभिसन्धि कर उसके पैतृक राज्य पर अधिकार कर लिया और तभी से उसके पिता एक साधारण क्षत्रिय का जीवन व्यतीत कर रहे हैं । तो तेजस्वी बालक सूरपाल ने मन ही मन अपना खोया हुआ पैतृक राज्य पुनः प्राप्त करने की ठानी।
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जिस समय बालक सूरपाल ६ वर्ष का हुआ उस समय उसने अपने पिता के समक्ष अपना संकल्प प्रकट करते हुए उनसे अपने शत्रुओं का संहार करने की अनुमति माँगी । 'शत्रुओं को यदि इस बालक के संकल्प का पता चल गया तो वे इसके प्राणों के ग्राहक बन जायेंगे और इस तरह उसे अपने वंश के आधारभूत एकमात्र पुत्र से भी हाथ धोना पड़ेगा, इस प्राशंका से वप्प क्षत्रिय ने बालक सूरपाल को डांटते हुए भविष्य में कभी इस प्रकार की बात तक मुंह से न निकालने की कड़े शब्दों में चेतावनी दी । इससे उस होनहार प्रतिभाशाली वालक के स्वाभिमान को इतनी गहरी चोट पहुँची कि वह अवसर देख कर अपनी माता तक को बिना कुछ कहे ही घर से चुपचाप निकल गया ।
उन दिनों गुजरात महाराज्य की राजधानी पाटण में महाराजा जितशत्रु गुजरात राज्य के राज्यसिंहासन पर आसीन थे । उस समय मोढ गच्छ के जैनाचार्य सिद्धसेन अपने सदुपदेशों से भव्यों को सत्यपथ बताते हुए जिनशासन के प्रचार प्रसार एवं निज पर कल्याण में निरत थे । एक दिन आचार्य श्री सिद्धसेन पाटण से
१ विक्रमतः शून्यद्वयत्रसुत्र ( ८०० ) भाद्रपदतृतीयायाम् ।
रविवारे हस्तक्ष जन्माभूद् वप्पभट्टिगुरोः ।।७३६ ।।
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( प्रभावक चरित्र )
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