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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य. ]
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लुटवा लिया और उस लूट में मिले ५०० हाथियों और १००० घोड़ों को वनराज के समक्ष उपस्थित किया। अपने पुत्रों द्वारा किये गये इस अवैध कार्य से वनराज को बड़ा दुःख हुआ, किन्तु उस समय वह मौन रहा। एक दिन समुचित प्रसंग उपस्थित होने पर वनराज ने अपने पत्रों से कहा--"हमारे प्रास-पास के राजा गरण अन्य सभी राजाओं की तो मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करते हैं किन्तु जहां गुर्जर भूमि का नाम आता है तो वे लोग यह कह कर हमारी हंसी उड़ाते हैं कि गुजरात में चोरों का राज्य है। हमें इस कलंक को धोना है। किन्तु तुमने राजाज्ञा का उल्लंघन कर गुर्जर राज्य के भाल में लगे इस कलंक के टीके को और गहरा, और ताजा किया है । इसका मुझे गहरा दुःख है ।”
तदनन्तर वनराज ने अपने तीनों पुत्रों के समक्ष एक धनुष प्रस्तुत करते हुए उस पर शरसंधान की प्राज्ञा दी। क्रमशः तीनों राजकुमारों ने शरसंधान का प्रयास किया किन्तु उनमें से कोई शरसंधान नहीं कर सका। यह देख कर वनराज ने उस धनुष को अपने हाथ में लेकर उसी समय शरसंधान कर दिया। शर संघान किये हुए वनराज ने अपने पुत्रों से कहा-"पुत्रो! तुमने राजाज्ञा का उल्लंघन किया है, इस अपराध का दन्ड या तो तुम स्वयं भोगो अन्यथा मुझे तुम्हारा संरक्षक होने के कारण तुम्हारे अपराध का दण्ड भोगना होगा।" यह कहत हुए वृहद् गुर्जर राज्य के संस्थापक वनराज ने जीवन भर के लिये अन्न-जल का त्याग कर पूर्ण अनशन कर दिया। कतिपय दिनों तक अनशन के साथ अध्यात्म साधना में लीन रहते हुए वनराज ने १०६ वर्ष की प्रायु पूर्ण कर विक्रम सं० ८६.२ में इहलीला समाप्त की। न केवल गुजरात प्रदेश के अपितु भार्यधरा के इतिहास में वृहद् गुजरात राज्य के प्राच संस्थापक जैन धर्मानुयायी राजा वनराज का नाम सदा सम्मान के साथ लिया जाता रहेगा।
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