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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
समय-समय पर सभी भांति सक्रिय सहयोग प्राप्त होता रहा। पाटण राज्य के आश्रय में जिस प्रकार चैत्यवासी परम्परा फली और फूली उसी प्रकार चैत्यवासियों के सक्रिय सहयोग से वनराज वहद गुर्जर राज्य की स्थापना में सफल-काम हुआ, इस तथ्य को प्रायः सभी इतिहास विदों ने एक स्वर से स्वीकार किया है। यह जैनों मुख्य रूप से चैत्यवासियों के सक्रिय सहयोग का ही सुपरिणाम था कि पाटण लगभग ७ शताब्दियों तक गुर्जर राज्य की राजधानी रहा । वृहद् गुर्जर राज्य की स्थापना में जैनधर्मावलम्बियों के सक्रिय सहयोग के सम्बन्ध में, 'प्रबन्धचिन्तामणि' नामक ग्रन्थ के वनराज प्रबन्ध में निम्नलिखित श्लोक मननीय है :
गौर्जरात्रमिदं राज्यं, वनराजात् प्रभृत्यभूत् । स्थापितं जैनमन्त्र्याधः, तद्वेषी नव नन्दति ।।
अर्थात् गुर्जरात्र राज्य की संस्थापना जैन मन्त्रियों के सक्रिय सहयोग से हुई । चापोत्कटवंशीय क्षत्रिय वनराज से वृहद् गुर्जर राज्य का शुभारम्भ हुआ इसी कारण जैन धर्म के प्रति विद्वेष अथवा ईर्ष्या रखने वाला कोई भी व्यक्ति इस राज्य में समृद्ध नहीं हो पाता।
वनराज चावड़ा का नैतिक धरातल कितना उच्च कोटि का था, इस सम्बन्ध में लोक कथा के रूप में एक आख्यान परम्परा से बड़ा ही लोकप्रिय रहा है। वह पाख्यान इस प्रकार है :--.
"वनराज के शासनकाल में एक समय १००० घोड़ों और ५०० हाथियों से लदे जहाज समुद्री पवन के प्रचण्ड झोंके के परिणामस्वरूप अपने लक्ष्य की प्रोर न बढ़ कर सोमनाथ के समुद्री किनारे पर पाटण राज्य की सीमा में प्रा पहुंचे । जब वनराज के राजकुमारों को यह सूचना मिली तो तीनों राजकूमार अपने पिता की सेवा में उपस्थित हुए और उन्होंने अपने पिता से उन जहाजों को लूट लेने की प्राज्ञा मांगते हुए निवेदन किया-"देव ! इस घर पाई हुई गंगा से लाभ क्यों नहीं ले लिया जाय ।"
वनराज ने अपने पुत्रों को इस प्रकार का कोई कार्य न करने का निर्देश देते हुए कहा-"मैं समझ नहीं पा रहा है कि तुम लोगों के मन में इस प्रकार का अनैतिक कार्य करने के विचार ही कैसे पाये। तुम्हें सदा न्याय नीतिपूर्वक अपनी भुजामों के बल से अजित सम्पदा को ही अपनी सम्पदा समझना चाहिये।"
बिना प्रयास किये और बिना धन के व्यय किये ही १००० जातीय अश्व मौर ५०० गजराज हाथ लग जायें, यह एक बहुत बड़ा प्रलोभन था। वे राजकुमार अपने पिता द्वारा उन जहाजों को लूट लेने की प्राज्ञा के प्राप्त न होने पर भी लोभ का संवरण नहीं कर सके । उन्होंने अपने सशस्त्र अनुचरों को भेज कर उन जहाजों को
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