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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३]
यापनीय, चैत्यवासी, मठवासी, कर्चक आदि पथक इकाइयों का अस्तित्व स्वल्पतोया क्षेत्रीय नदों अथवा छोटी नदियों के रूप में अधिक महत्व का नहीं रहा। इसी कारण जैन इतिहास में भी उस समय तक एक दूसरे से भिन्न उल्लेखनीय विभिन्न घटना चक्रों का प्रायः अभाव ही रहा ।
किन्तु देवद्धि क्षमाश्रमण से उत्तरवर्ती जैनधर्म, जैनसंघ और उसके इतिहास की स्थिति, उसके अनेक टुकड़ों में विभक्त हो जाने के परिणामस्वरूप इसके पूर्व इतिहास से नितान्त भिन्न, बड़ी ही दुरूह और उलझन भरी हो गई ।
आर्य महागिरि के स्वर्गारोहण काल, अर्थात् वीर नि०सं० २४५ तक जैन इतिहास एकता के सूत्र में सुसंगठित एवं एकमात्र विशुद्ध प्राचार्य परम्परा का ही इतिहास रहा । वीर नि०सं० २४५ से वीर नि०सं० १००० तक अर्थात् पूर्वधर काल तक जैन धर्म का इतिहास बहिरंग रूप से वाचनाचार्य परम्परा, युगप्रधानाचार्य परम्परा और गणाचार्य परम्परा-इन तीन परम्पराओं के रूप में अंशत: विभक्त दृष्टिगोचर होते हुए भी त्रिवेणी संयम के समान परस्पर मूलत: संपृक्त, अन्योन्याश्रित
और सिद्धान्तत: अविभक्त रहने के कारण एक हो विभेदविहीन महानदी के रूप में प्रवाहित होता रहा । इस अवधि में भगवान महावीर के धर्मसंघ के सूचारुरूपेरण संचालन की दष्टि से वाचनाचार्य, युगप्रधानाचार्य और गणाचार्य ये तीन प्राचार्य परम्पराए मान्य की गई पर वे तीनों ही प्राचार्य परम्पराएं मूल आगमों में प्रतिपादित विशुद्ध आध्यात्मिक पथ पर समन्वयपूर्वक साथ-साथ चलती हुई स्व, पर और धर्मसंघ के अभ्युदय एवं उत्कर्ष में निरत रहीं।
इसी कारण वीर नि०सं० १००० तक जैनधर्म के इतिहास का उल्लेख श्रमसाध्य होते हए भी उलझनों, अनिश्चितताओं और समाधान न होने योग्य समस्याओं से अपेक्षाकृत मुक्त रहा।
इसके विपरीत वीर नि०सं० १००० से उत्तरवर्ती काल का जैनधर्म का इतिहास आगमपरिपन्थिनी अनेक प्रकार की मान्यताओं वाले संघों, सम्प्रदायों, गरणों और गच्छों के उद्भव, प्राबल्य एवं प्रचार-प्रसार के कारण उलझनों एवं असमाधेय समस्याओं से अोतप्रोत रहा। विभेदों से परिपूर्ण होने के साथ-साथ देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के स्वर्गारोहरण के पश्चात् का जैन इतिहास अनेक रूपों में विभिन्न आवरणों तथा आयामों में देश के विभिन्न भागों में अगणित विभिन्नताओं में बिखरा पड़ा है, अतः इस अवधि के जैन इतिहास का आलेखन वस्तुतः अत्यन्त जटिल है।
इस अति कठिन दुस्साध्य कार्य में कहां तक सफलता प्राप्त होगी, यह तो भविष्य ही बतायेगा। पर इस दिशा में हमारे प्रयत्न कितने सफल हुए हैं, इसका निर्णय विद्वान् इतिहासविद् ही कर सकेंगे।
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