SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिंहावलोकन ] [ ५ करने पर यह अनुमान लगाया जाता है कि वीर नि० सं० १९१८ से १६६३ तक युगप्रधानाचार्य पद पर रहे प्राचार्य हरिमित्र के स्वर्गस्थ होने के अनन्तर संभवत: विशाख गणी नामक प्राचार्य वीर नि० सं० १९६३ से २००० तक युगप्रधानाचार्य पद पर रहे हों । इतिहास विद् इस पर अधिक प्रकाश डालें यही उपयुक्त होगा। __ यद्यपि विशाखगरणी के वीर निर्वाण की बीसवीं शताब्दी के प्राचार्य होने के सम्बन्ध में अनेक शंकाएं उत्पन्न होती हैं तथापि इस विषय में अधिकाधिक गवेषणा से कोई ऐतिहासिक तथ्य प्रकाश में आ सके, इसी शुभेच्छा एवं सदाशा से प्रस्तुत ग्रन्थ में विशाखगणी का नाम हरिमित्र के पश्चात् ४४ वें क्रम पर रखा गया है इस सम्बन्ध में यथास्थान यथाशक्य पूरा प्रकाश डालने का प्रयास किया जायगा । यह तथ्य तो प्रायः सर्वविदित है कि आद्य तीर्थंकर भगवान ऋषभ देव द्वारा प्रवर्तमान अवसपिणी काल में हमारी इस आर्यधरा पर धर्मतीर्थ के प्रवर्तन के समय से लेकर अन्तिम पूर्वधर आर्य देवद्धिगरिण क्षमाश्रमण के स्वर्गस्थ होने तक अर्थात् वीर नि० सं० १००० तक का जैन धर्म का इतिहास आर्य महागिरि एवं सुहस्ति के समय के साधारण एक दो अपवादों को छोड़ कर वस्तुत: विशुद्ध एवं मूल धर्म परम्परा का इतिहास रहा । वीर नि.सं. ६०६ और उसके आसपास यद्यपि जैन धर्म की मूल विशुद्ध परम्परा में दिगम्बर संघ, यापनीय संघ, नियतनिवासी चैत्यवासी संघ और आंशिक रूप से भट्टारक परम्परा जैसी छोटी-छोटी पृथक् इकाइयों के प्रादुर्भाव के परिणामस्वरूप वीर निर्वाण की सातवीं शताब्दी में जैन संघ छोटे बड़े पांच वर्गों में विभक्त हो गया पर यह सब कुछ हो जाने के उपरान्त भी वीर निर्वाण की दसवीं शताब्दी के अन्त तक मुख्य रूप से मूल विशुद्ध धर्मपरम्परा का ही वर्चस्व रहा और जैन धर्मावलम्बियों में युगादि से परम्परागत विशुद्ध मूल परम्परा ही बहुजनमान्य एवं बहजनसम्मत रही। मथुरा के 'कंकाली टीले' की खुदाई से उपलब्ध ऐतिहासिक महत्व की सामग्री से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है कि वीर निर्वाण की दसवीं शताब्दी के अन्त तक श्रमण भगवान् महावीर की मूल विशुद्ध परम्परा का ही मुख्यतः उत्तर भारत में तो पूर्ण वर्चस्व रहा।' इसी कारण जैनधर्म का इतिहास भी वीर निर्वाण की दशवीं शताब्दी तक एक महानदी के प्रवाह के रूप में अपनी पारम्परिक महानता लिये अबाध गति से चलता रहा। उस समय तक मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई में जो ऐतिहासिक महत्व की, कनिष्क के काल से लेकर गुप्त काल तक की प्राचीन पुरातात्विक सामग्री प्रकाश में आयी है, उसमें इन यापनीय, कूचक, दिगम्बर, चैत्यवासी आदि कालान्तर में उद्भूत हुई इकाइयों का कहीं नाम तक नहीं है। इससे यही फलित होता है कि कनिष्क सं० ५ (शक सं० ५ वीर नि० सं०६१०) के लेख सं० १६ से लेकर लेख सं० ६२ पर्यन्त (वीर नि० सं० ९६० तक के लेखों में) इन सभी कालान्तरवर्ती संघों अथवा विभिन्न इकाइयों का अस्तित्व तक उत्तर भारत के केन्द्र मथुरा में नहीं था। ---सम्पादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy