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________________ ५८० ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास --- भाग ३ के महाराजा वनराज को दक्षिण के गंगराजवंश एवं होय्सल राजवंश के राजाओं के समकक्ष रखा जा सकता है, जिन्होंने शताब्दियों तक अपने राजवंश के संस्थापक जैनाचार्य के प्रति अप्रतिम कृतज्ञता प्रकट करते हुए जैनधर्म के प्रचार-प्रसार एवं उसके अभ्युदय उत्कर्ष के लिये अनुपम योगदान दिया । शीलगुणसूरि के कृपाप्रसाद से वनराज का समुचित रूपेण लालन-पालन हुआ । शीलगुणसूरि के पट्टधर शिष्य देवचन्द्रसूरि ने उसे समुचित शिक्षण प्रदान कर सुयोग्य बनाया । इन दोनों ही गुरुशिष्यों ने तथा उनके इंगित मात्र पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने वाले चैत्यवासी जैन श्रीसंघ ने समय-समय पर वनराज को सब भांति की सहायता प्रदान की । अपने अनन्य उपकारियों- शीलगुणसूरि, देवचन्द्रसूरि और चैत्यवासी जैन श्रीसंघ के प्रति अपनी अगाध कृतज्ञता प्रकट करते हुए वनराज चावड़ा ने गुर्जर राज्य के राजसिंहासन पर प्रारूढ होते समय शीलगुणसूरि और देवचन्द्रसूरि के हाथों से वासक्षेप के साथ अपना राज्याभिषेक करवाया था । अपने साथ किये गये अनन्य उपकार के प्रति आन्तरिक कृतज्ञता प्रकट करते हुए वनराज ने अपने गुरु शीलगुणसूरि की इच्छानुसार पाटण के विशाल राज्य में चैत्यवासी परम्परा के साधु-साध्वियों को छोड़कर शेष सभी परम्पराओं के साधु-साध्वियों के प्रवेश तक पर प्रतिबन्ध लगाने की स्थायी प्राज्ञा निकालकर गुर्जर प्रदेश में चैत्यवासी परम्परा के प्रचार-प्रसार और पल्लवन में ऐसा अपूर्व योगदान दिया था, जिसका उदाहरण अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता । इसे कृतज्ञता प्रकाशन में वनराज द्वारा अपने गुरु को दी गई एक बहुत बड़ी ऐतिहासिक दक्षिणा की संज्ञा दी जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । वनराज द्वारा इस प्रकार प्रसारित की गई प्रतिबन्धात्मक राजाज्ञा का सबसे बड़ा लाभ चैत्यवासी परम्परा को यह मिला कि वीर निर्वाण की ग्यारहवीं शताब्दी से ही गुर्जर भूमि में पूर्णवर्चस्व की स्थिति में रहते आ रहे चैत्यवासी वीर नि० की १६ वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक गुर्जर भूमि में अपनी परम्परा का ही एकच्छत्र प्रभुत्व जमाये रख सके । गुर्जर भूमि में राज्याश्रय पायी हुई चैत्यवासी परम्परा किसी अन्य प्रतिद्वन्द्वी परम्परा के प्रचार के अभाव में बिना किसी बाधा के उत्तरोत्तर निर्बाध गति से निरन्तर पल्लवित एवं पुष्पित होती ही रही । उसे लगभग ५ शताब्दियों तक विरोध की गरम हवा तक नहीं लगी । वनराज चावड़ा ने बाल्यकाल में चैत्यवासी प्राचार्य देवचन्द्रसूरि से जैन सिद्धान्तों की शिक्षा प्राप्त की थी। वह जीवन भर शीलगुणसूरि को और देवचन्द्र सूरि को अपना गुरु मानता रहा । इन चैत्यवासी प्राचार्यों एवं चैत्यवासी संघ द्वारा किये गये उपकारों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिये न केवल वनराज ही अपितु उसके वंशज भी अपने आपको चैत्यवासी परम्परा के ही उपासक मानते एवं प्रकट करते रहे । क्षत्रिय वंशी चावड़ा चैत्यवासियों को अपना कुलगुरु मानते थे, इस तथ्य का द्योतक एक दोहा बड़ा प्रसिद्ध रहा है, जो इस प्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only -: www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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