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________________ ५७६ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ एक दिन जांब अथवा चांपा नामक श्रीमाली जातीय जैन व्यापारी घृत बेचने के लिये नगर की ओर जा रहा था। जब वह घतपात्रों से भरे अपने गाडों के साथ एक वन को पार कर रहा था, उस समय वनराज को परिस्थितिवशात् दस्युकर्म करने के लिये बाध्य होना पड़ा था। गाडों के साथ व्यापारी को देखते ही वनराज ने अपने दो साथियों के साथ आगे बढ़ कर उसे रोका । प्रत्युत्पन्नमति वणिक् ने ताड़ लिया कि आज उसे लूटा जायेगा। वह स्वयं धनुर्धारी था। उसने तत्काल अपने तूणीर में से सभी तीरों को निकाला । वे कूल ५ तीर थे। उन पांच तीरों में से दो तीरों को उसने वनराज के देखते-देखते ही तोड़-मरोड़ कर एक ओर फेंक दिया और शेष तीन तीरों को हाथ में लेकर खड़ा हो गया। वनराज ने आश्चर्य प्रकट करते हए उस व्यापारी से पूछा :- "ए वणिक ! इन पांच बाणों में से दो को तोड़ कर तुमने एक ओर क्यों फेंक दिया ?" जाम्ब ने तत्काल बड़ी निर्भीकता से उत्तर दिया- "तुम लोग तीन हो अतः तुम्हारे लिये ये तीन बांण ही पर्याप्त हैं। शेष दो बारणों का बोझा मैं व्यर्थ ही क्यों ढोऊ, इस लिये मैंने इनको तोड़कर एक पोर फेंक दिया।" हास्य भरे पाश्चर्यमिश्रित स्वर में वनराज ने पूछा - "अच्छा! इतना अट विश्वास है तुम्हें अपनी धनुर्विद्या पर? यदि ऐसा है तो वायु के झोंकों से झकझोरित उस वृक्ष की टहनी के वाम पार्श्व में झमते हुए उस फल का लक्ष्यवेध करो।" जाम्ब ने तत्काल अपने धनुष की प्रत्यंचा पर शरसंधान करके तीर चला दिया। जिसकी ओर वनराज ने संकेत किया था वही फल पृथ्वी पर आ गिरा। हर्षविभोर होकर वनराज ने कहा-"तुम्हारे साहस और दुस्साध्य लक्ष्यवेध से मैं बड़ा प्रसन्न हं । गुर्जर राज्य की स्थापना के साथ ही मैं तुम्हें अपने राज्य का महामंत्री बनाऊंगा। समझ लो कि आज इस क्षण से ही तुम मेरे विशाल गर्जर राज्य के प्रधान मन्त्री हो। अपने बुद्धि-कौशल से तुम कोई ऐसा उपाय सोचो कि हमें विपल धनराशि की प्राप्ति हो। तुम्हारी बुद्धि और मेरी शक्ति के योग से सफलता हमारे चरण चूमेगी। भावी गुर्जर राज्य के महामात्य ! जाप्रो और अपार धनराशि की प्राप्ति के लिये अभी से उपाय खोजना प्रारम्भ कर दो।" श्रेष्ठि जाम्ब ने भी वनराज की आज्ञा को ठीक उसी रूप में शिरोधार्य किया, जिस लहजे से एक प्रधानमन्त्री अपने सम्राट् की प्राज्ञा को शिरोधार्य करता है। वनराज ने श्रेष्ठ जाम्ब का नाम, ग्राम प्रादि अपनी दैनन्दिनी में लिखा और उसे सहर्ष जाने की अनुमति प्रदान कर दी। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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