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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
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शील, शौर्य, परोपकार, निर्भीकता आदि उच्च नैतिक धरातल के संस्कारों को भी ढालने का प्रयास किया।
देवचन्द्रसूरि की आशा के अनुरूप ही बालक वनराज भी इन सुसंस्कारों को अनुक्रमश: हृदयंगम करने के साथ-साथ उन्हें अपने जीवन में ढालने लगा। कुशाग्रबुद्धि बालक वनराज किशोरवय में प्रवेश करते-करते व्यावहारिक ज्ञान के साथसाथ अनेक विद्याओं तथा नीति एवं न्यायशास्त्र में पारंगत बन गया ।
___ समुचित शिक्षण प्रदान कर देने के पश्चात् दूरदर्शी अवसरज्ञ शीलगुणसूरि ने वनराज को उसके मामा सूरपाल के पास क्षत्रियोचित शस्त्रास्त्रों की शिक्षा के लिये भेज दिया। अपने मामा के पास रहकर वनराज ने शस्त्रास्त्र-संचालन और रणभूमि में शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने की युद्धकौशल-कला का शिक्षण प्राप्त किया।
वनराज बाल्यकाल से ही बड़ा महत्वाकांक्षी था। युवावस्था में पदार्पण करते ही उसने गुर्जर भूमि में एक ऐसे शक्तिशाली एवं सुविशाल राज्य की स्थापना का दृढ़ संकल्प किया, जिसकी ओर कभी कोई शक्तिशाली से शक्तिशाली शत्रु भी अांख उठाकर देख न सके । उसने एक प्रकार से शक्तिशाली गुर्जर राज्य की स्थापना को अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। अपने जीवन के इस लक्ष्य की पूर्ति के लिये उसे बड़े लम्बे समय तक संघर्षरत रहना पड़ा । लगभग ३० वर्षों तक संघर्षरत रहने के पश्चात् उसे अपने अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति हुई। इतने लम्बे संघर्षकाल में उसे चैत्यवासी प्राचार्य शीलगुणसूरि, उनके शिष्य एवं पट्टधर देवचन्द्रसूरि और चैत्यवासी संघ से लगातार किसी न किसी रूप में सक्रिय सहयोग प्राप्त होता रहा । संघर्ष की घड़ियों में बड़ी से बड़ी विपत्ति आने पर भी वह कभी निराश नहीं हुआ। अपने संघर्षपूर्ण जीवनकाल में अनेक बार आई प्रभावपूर्ण विपन्नावस्था में भी वह शक्तिशाली गुर्जर राज्य की स्थापना के स्वप्न देखता रहा और अपनी कल्पना के भावी विशाल राज्य के योग्य पहले से ही, प्रधानामात्य, मन्त्री, दण्डनायक-सेनापति प्रादि पदों के गुरुतर भार को वहन करने में सक्षम व्यक्तियों का चयन करने में संलग्न रहा। अपने स्वप्नों के साम्राज्य को सूचारुरूप से चलाने के लिए वनराज द्वारा किये गये सुयोग्य व्यक्तियों के चयन की घटनाएं बड़ी ही रोचक होने के साथसाथ महत्वाकांक्षी मनीषियों के लिये बड़ी उपयोगी सिद्ध हो सकती हैं। इस दृष्टि से उनमें से दो तीन मुख्य घटनाओं को यहां उद्धत किया जा रहा है:
१. संघर्ष की विकट घड़ियों में अपने सैनिकों के भरण-पोषण एवं शत्रुओं के साथ संघर्ष के लिये शस्त्रास्त्रों की पूर्ति हेतु वनराज को दस्यु कर्म भी अंगीकार करना पड़ा।
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