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________________ ५७४ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग ३ अपने जीवन के उषाकाल से ही राजमहलों में रहने वाली एक क्षत्रिय बाला हिंस्र पशुत्रों से संकुल निर्जन वन में किस साहस और आत्मविश्वास के साथ रह रही है, यह देख और सुनकर शीलगुणसूरि अवाक रह गये। उन्होंने मन ही मन में कहा-"इसी प्रकार की साहस-शौर्य-पुज क्षत्राणियों की कुक्षि से शौर्यशाली नररत्नों का जन्म होता है।" शीलगुणसूरि ने राजमाता रूपसुन्दरी की ओर अभिमुख होते हुए कहा"वत्से ! साहस और शौर्य की अप्रतिम प्रतिमूर्ति रत्नगर्भा क्षत्राणी की इस अद्भुत शौर्यगाथा को सुनकर आर्यधरा के आबालवृद्ध का भाल गर्व से समुन्नत हो जाता है । अब पग-पग पर संकटों की परम्पराओं से परिपूर्ण तुम्हारे वन्य जीवन के दिन समाप्त हुए। तुम मेरे साथ चलो। तुम्हारे रहन-सहन और इस होनहार बालक के लालन-पालन शिक्षण-दीक्षरण आदि की सभी भांति की समुचित व्यवस्था कर दी जायगी। हम लोगों के अतिरिक्त तुम्हारा वास्तविक परिचय किसी को नहीं हो पायगा । तुम हमारी धर्मपुत्री हो। गुर्जरभूमि का सम्पूर्ण जैन समाज तुम्हें और तुम्हारे बालक को देश की अनमोल धरोहर मानकर तुम्हारे स्वाभिमान-सम्मान की समुचित रूप से रक्षा करेगा । तुम अपने पुत्र को लेकर पूर्णरूपेण आश्वस्त होकर हमारे साथ चलो।" रूपसुन्दरी ने तत्काल झोली सहित बालक को अपनी पीठ पर लिया और उस सन्तमण्डली के चरणचिह्नों का अनुसरण करती हुई उनके साथ-साथ पथ पर अग्रसर हो गयी। शीलगुणसूरि बालक वनराज और उसकी माता के साथ पंचासर के उपाश्रय में पाये । उन्होंने अपनी सेवा में उपस्थित हुए जैन श्रीसंघ के प्रधान के साथ गुप्त मंत्ररणा कर राजमाता रूपसुन्दरी और उसके पुत्र वनराज की एक सुरक्षित भवन में आवास-भोजन-पान आदि जीवनोपयोगी सभी सामग्रियों की समुचित व्यवस्था कर दी। . बालक वनराज का लालन-पालन बड़े ही प्यार-दुलार के साथ होने लगा। बालक वनराज द्वितीया के चन्द्र की कला के समान क्षात्र-तेज के साथ-साथ उत्तरोत्तर अभिवृद्ध होने लगा। वह अपना अधिकांश समय चैत्यवासी शीलगुणसूरि के स्थिर आवास-चैत्यालय में ही व्यतीत करता। शीलगुणसूरि के पट्ट शिष्य देवचन्द्रसूरि ने बालक वनराज के शिक्षण का कार्य स्वयं अपने हाथ में लिया और वे बड़े ही मनोयोगपूर्वक स्नेह से विद्याध्ययन कराने के साथ-साथ जैन धर्म के प्रमुख सिद्धान्तों की प्रारम्भिक शिक्षा भी देने लगे। उन्होंने बालक वनराज के बालसुलभ निश्छल मानस में क्षत्रियकुमारोचित सत्य, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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