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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
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और दुर्दैव से इस समय अपने विपत्ति के दिन इस प्रकार वन्यजीवन की विपन्नावस्था में बिता रही हो । सब के दिन सदा एक समान नहीं रहते, यह तो भाग्य का एक अटल विधान है।"
यह सुनते ही उस महिला के स्मृतिपटल पर उसके विगत जीवन का घटनाचक्र उभर आया और उसके विशाल लोचनों से अश्र प्रों की अविरल धारा प्रवाहित हो उठी।
सांत्वना भरे स्वर में शीलगुणसूरि बोले- "पुत्री ! तुम्हारे ये दुर्दिन भी सदा रहने वाले नहीं हैं । तुम्हारा यह बालक महान् भाग्यशाली है । भविष्य में यह गुर्जरघरा का भाग्य विधाता बनेगा। यदि तुम्हें किसी प्रकार की आपत्ति नहीं हो तो मैं यह जानना चाहंगा कि तुम कौन हो, यह बालक किस कुल का प्रदीप है। भौतिक एषणाओं से सदा दूर रहने वाले साधुओं पर तुम निर्भय होकर विश्वास कर सकती हो तुम्हारे साहस को देखकर हमें बड़ी प्रसन्नता हुई है। हम लोगों से तुम्हें सदा अच्छाई की ही आशा करनी चाहिये । अब तुम हमसे बिना किसी बात को छुपाये, सार रूप में अपने बीते जीवन के सम्बन्ध में बताने योग्य बातें बतायो।"
उस बालक की माता ने अपनी फटी साटिका के छोर से अपने प्रांस पोंछे और इस प्रकार अपने आपको आश्वस्त करते हुए उसने अपने बीते जीवन का परिचय देना प्रारम्भ किया- “योगीश्वर ! मैं पंचासर के राजा जयशेखर की रानी हूं, मेरा नाम रूपसुन्दरी है । कल्याणी-पति भुवड़ के साथ युद्ध करते हुए वे रणांगण में ही स्वर्गस्थ हुए। मेरे पतिदेव महाराज जयशेखर जिस समय स्वर्गस्थ हुए, उस समय यह बालक मेरे गर्भ में ही था। यह तो सर्वविदित ही है कि राजघरानों में राज्य को हथियाने के लिये थोड़ा सा अवसर मिलते ही षड्यन्त्रों का सूत्रपात हो जाता है । मेरे गर्भस्थ शिशु की, राज्य के लोभ में प्राकर कोई हत्या न कर दे, इस संभावित भय से मैं शत्रुओं से बचकर राजप्रासाद से एकाकी निकली और यहां विकट वन में आकर वन्य जीवन व्यतीत करने लगी। इस वन में ही समय पर मैंने वि० सं० ७५२ की वैशाख शुक्ला पूर्णिमा के दिन इस बालक को जन्म दिया है। इस बालक ने देवदुर्विपाक से राजप्रासाद के स्थान पर इस वन में जन्म लिया, इसलिये मैंने इसका नाम वनराज रखा है।
चापोत्कट वंश का प्रदीप यह बालक अपने जन्मकाल से ही इस विकट वनी के वन्य पशुओं के बीच येन केन प्रकारेण अपना शैशव काल व्यतीत कर रहा है। इसके मामा मुरपाल हैं । षड्यन्त्रकारी लोग बड़े सतके होते हैं । वे इसके सभी निकट संवन्धियों के यहां इस बालक की टोह में प्रवश्य लगे होंगे। कहीं मेरा यह नन्हा सा लाल उन पड्यन्त्रकारियों के जाल में न फंस जाय, इसी भय से मैं अपने किसी प्रात्मीय के पास न जाकर इस एकान्त वन में इसके प्राणों की रक्षा कर रही हैं।"
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