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चैत्यवासी प्राचार्य शीलगरण सूरि
और चैत्यवासी परम्परा का प्रबल समर्थक जैन राजा
वनराज चावड़ा
वीर नि० की १३ वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में चैत्यवासी परम्परा में शीलगुण सूरि नाम से एक महान् प्रभावक आचार्य हुए हैं। उन्होंने गुजरात में वीर निर्वाण सं० १२७२ के आसपास एक जैन राजवंश (चावड़ा राजवंश) की स्थापना कर चैत्यवासी परम्परा के उत्कर्ष के लिए जो अथक् प्रयास किये वे मध्ययुगीन जैन इतिहास में महत्वपूर्ण हैं।
शीलगुणसूरि चैत्यवासी परम्परा के नागेन्द्र गच्छ के प्राचार्य थे । एक समय शीलगुणसूरि अपने शिष्यों के साथ अपनी परम्परा के प्रचार-प्रसार के लिये एक ग्राम से दूसरे ग्राम की ओर जा रहे थे। राह में उन्होंने वन में एक स्थान पर, जहां कि इस समय वणोंद नामक ग्राम बसा हा है, एक वृक्ष के तने में लटकती हई एक झोली देखी । उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। पास में जाकर उन्होंने देखा कि वृक्ष की डाली से बंधी हई उस झोली में एक बालक सो रहा है। उन्होंने बालक को बड़े ध्यान से देखा । उस बालक के मुख, भाल और अंगोपांगों के लक्षणों को देखकर उनके मुख से अनायास ही ये उद्गार निकल पड़े :--."अरे! यह बालक तो आगे चलकर महा प्रतापी पुरुषसिंह होगा।"
वृक्ष की छाया में अपने बालक के पास साधुमण्डली को खड़ी देखकर वन में कन्द-मूल-फल-फूलादि का चयन करती हुई एक युवा स्त्री उनके पास आई । उसने शीलगुणसूरि को प्रणाम किया और एक ओर मौन साधे एवं बार-बार मुनिमण्डल की ओर दृष्टि निक्षेप करती, एवं लज्जा से सिकुड़ी हुई खड़ी रही ।
शीलगुणसूरि ने उस स्त्री से पूछा:-"बहिन ! क्या यह बालक तुम्हारा
उस महिला ने स्वीकृतिसूचक मुद्रा में अपनी राजहंसिनी तुल्या ग्रीवा झुका दी और वह सहमी हुई सी धरती की ओर दृष्टि गडाए खड़ी रही।
१{शीलगुणसूरि ने कहा- "बहिन ! तुम्हें और तुम्हारे इस होनहार बालक के लक्षणों को देखने से हमें विश्वास हो गया है कि तुम किसी महान् कुल की वधु हो
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