________________
५७० ]
[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
तथा विवाह पण्णत्ति आदि पांच अंगों के ह्रास का उल्लेख किया है। माढर सम्भूति से सम्बन्धित जो गाथा तित्थोगाली पइन्नय में है. वह इस प्रकार है :
समवाय ववच्छेदो, तेरसहिं सतेहिं होहिति वासाणां ।
माढर गोत्तस्स इहं, सम्भूत मतिस्स मरणम्मि ॥८१५।। अर्थात-वीर नि०सं० १३०० में माढर गोत्रीय संभूत श्रमणवर के स्वर्गस्थ हो जाने के अनन्तर समवायागं-सूत्र का ह्रास हो जायेगा।
इस प्रकार तित्थोगाली पइन्नयकार ने स्पष्ट शब्दों में उल्लेख किया है कि वीर नि० सं० १३०० में माढर सम्भूति का स्वर्गवास हो गया।
इसके विपरीत दुस्समाकाल समण संघथयं की गाथा संख्या १४ में "संभूई माढर संभूइं" इन तीनों शब्दों के द्वारा ३३वें और ३४वें युगप्रधानाचार्य-संभूतिमाढर संभूति अथवा माढर संभूति-संभूति का उल्लेख किया गया है। इसी समरण संघ थयं की अवचूरि के अन्तर्गत जो-"द्वितीयोदय युगप्रधान यन्त्र' दिया हुआ है, उसमें पहले संभूति का और उनके पश्चात् माढर संभूति का नाम दिया हुआ है। युगप्रधानाचार्यों के जन्म, दीक्षा, युगप्रधान पद, स्वर्ग एवं पूर्णायु का जो समय इस यन्त्र में दिया हुआ है, उसमें श्री संभूति को ३३वां युगप्रधानाचार्य बताकर, उनका वीर नि० सं० १३०० में स्वर्गवास होना बताया गया है।'
'तित्थोगाली पइन्नय' में केवल माढर संभूति का ही उल्लेख है। स्पष्ट रूप से संभति का इसमें कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं है। तथापि गाथा संख्या ८१६ में जिन आर्जव यति के वीर नि. सं. १३५० में स्वर्गस्थ होने पर स्थानांग सूत्र का ह्रास होना बताया गया है, वहां तित्थोगाली पइन्नयकार ने अज्जव अर्थात् ऋजु-सरल सम्बोधन की दृष्टि से संभूति को ही आर्जव यति के नामसे तो कहीं सम्बोधित नहीं किया है, इस प्रकार का ईहापोह अन्तर में उत्पन्न होता है। 'तित्थोगाली पइन्नय' के उल्लेखानुसार माढर संभूति का स्वर्गवास वीर नि० सं० १३६० में मान लिये जाने की स्थिति में उनके पश्चाद्वर्ती युगप्रधानाचार्य संभूति का स्वर्गवास वीर नि० सं० १३५० के आसपास होना युक्तिसंगत प्रतीत होता है। अन्तर केवल दस वर्ष का रहता है। तित्थोगाली पइन्नयकार ने प्रार्जव यति (सम्भवतः संभूति) का वीर नि० सं० १३५० में स्वर्गस्थ होना. बताया है और 'दुस्समाकाल समण संघथयं' की अवचूरि के अन्तर्गत 'द्वितीयोदय युगप्रधान यन्त्र' में उल्लिखित काल गणना की एक
' एतत्ग्रन्थकतृ णां श्री धर्म घोष सूरीणां विक्रम सं. १३२७ तम व” सूरिपद, वि. सं. १३५७ तम वर्श स्वर्गगमनम् ।
पट्टावली समुच्चय (दुष्षमाकाल श्री श्रमणसंघस्तवम्) पृ. १६ (रिघण)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org