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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
[ ५६५ का उत्तरार्द्ध रहा होगा। शंकराचार्य जिस समय १६ वर्ष की वय के थे उस समय कुमारिल्ल के साथ उनका साक्षात्कार उस समय हुआ जबकि वे तुषानल में अपने अापको जला रहे थे । इससे अनुमान किया जाता है कि कुमारिल्ल शंकराचार्य से वय में लगभग ८० वर्ष बड़े होंगे। इससे भी शंकराचार्य का समय लगभग वही ७८८ से ८२० ईस्वी सन् का आता है। शंकराचार्य को पूर्णायु के सम्बन्ध में निम्नलिखित श्लोक से निस्सन्दिग्ध रूप से प्रकाश पड़ता है :
अष्ट वर्षे चतुर्वेदी द्वादशे सर्व शास्त्रवित् ।
षोडशे कृतवान् भाष्यं द्वात्रिंशे मुनिरभ्यगात् । शंकर दिग्विजय और उपरि वरिणत शंकराचार्य के जीवन वृत्त से यह तो सिद्ध होता है कि उन्होंने ब्रह्माद्वैतवादियों के मण्डन के साथ-साथ अन्य सभी मतों का चाहे वे वैदिक परम्परा के हों, वैष्णव परम्परा के हों, सांख्य, बौद्ध, जैनादि परम्परामों के हों, उसका अपने जीवन काल में बड़े ही सयौक्तिक ढंग से खण्डन किया । अद्वैतवाद के अतिरिक्त और कोई भी मत इस आर्यघरा पर न पनप सके इस उद्देश्य से शंकराचार्य ने चिरकाल तक प्रभावशील योजना भारत की चारों दिशाओं में चार पीठों की स्थापना के माध्यम से की।
जैसा कि किंवदन्तियों में बौद्धों के संहार और जनों पर अत्याचार की लोक कथाएं प्रसिद्ध हैं ऐसा शंकर के दिग्विजय के विवरणों से कोई प्राभास नहीं मिलता । ऐसा प्रतीत होता है कि यह सब लेखनी का, युक्तियों का और शास्त्रार्थों का युग था । शैवों और लिंगायतों के धर्मोन्माद में जिस प्रकार प्रतिपक्षी धर्मावलम्बियों का रुधिर बहाया गया उस प्रकार की एक भी घटना कुमारिल्ल भट्ट द्वारा प्रारम्भ किये गये और शकराचार्य द्वारा अग्रेतर विकसित किये गये वैदिक धर्म के पुनसंस्थापनार्थ किये गये शास्त्रार्थों में अथवा समग्र धार्मिक अभियानों में :
न घटी होगी ऐसा हमारा विश्वास है। फिर भी इस किंवदन्ती की ऐतिहासिकता की खोज के किये अग्रेत्तर शोध की आवश्यकता है।
कर्णाटक प्रदेश का सुधन्वा नामक राजा दलबल सहित शंकराचार्य के दिग्वि. जय अभियान में प्रारम्भ मे लेकर अन्त तक साथ था। इससे भी यह अनुमान किया जाता है कि श्री शैलम् के कापालिक ककच्च को छोड़ किसी भी अन्य मतावलम्बी ने शंकराचार्य के शिष्य मण्डल के विरुद्ध बल प्रयोग का साहस तक नहीं किया होगा।
___ शंकराचार्य के इस दिग्विजय अभियान से तत्काल जैनों पर किसी प्रकार का कुप्रभाव पड़ा हो या उससे जैन संघ को कोई बड़ी हानि पहुँची हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता । किन्तु जिस प्रकार कर्णाटक के जैन राजा सुधन्वा को कुमारिल्ल भट्ट द्वारा जैन से वैदिक धर्म का अनुयायी बनाया गया, बहत सम्भव है शंकराचार्य ने
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