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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास -- भाग ३
इसी प्रकार प्रयाग में भी सांख्य योगवादियों, वैशेषिकों, शून्यवादियों, वराह मतानुयायियों तथा वरुण एवं वायु आदि के उपासकों के साथ शंकराचार्य के. शास्त्रार्थ का और शंकराचार्य द्वारा उनके पराजित किये जाने का माधव ने शंकर विजय में विस्तारपूर्वक वर्णन किया है ।
इन सारे दिग्विजय के विवरणों में केवल एक उज्जैनी के विवरण को छोड़कर नामोल्लेखपूर्वक जैनों और बौद्धों के साथ शास्त्रार्थ का और उन शास्त्रार्थों में शंकर द्वारा उनके पराजित कर दिये जाने का कोई उल्लेख कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता ।
उज्जैनी में शंकराचार्य द्वारा उन्मत्त भैरव नामक शुद्र जाति के कापालिकों, चार्वाकों, जैनों एवं बौद्ध मतानुयायियों को पराजित किये जाने का उल्लेख आनन्दगिरि ने किया है । शंकर दिग्विजय के विवरणों में जैनों और बौद्धों के साथ शास्त्रार्थ करने अथवा शंकर द्वारा उन्हें पराजित किये जाने का अन्य कोई उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता ।
शंकराचार्य का समय
शंकराचार्य के समय के सम्बन्ध में विद्वानों में परस्पर बड़ा मतभेद है। किन्तु द्ययुगीन विद्वानों ने एक प्रकार से अन्तिम रूप से शंकराचार्य का समय विक्रम सम्वत् ८४५ से ८७७ तदनुसार ईस्वी सन् ७८६ से ८२० तक का माना है । इसकी पुष्टि कृष्ण ब्रह्मानन्द द्वारा रचित " शंकर विजय" के निम्नलिखित उल्लेख से भी होती है :
:―
निधि नाम वह न्यब्दे विभवे शंकरोदयः,
कलौ तु शालिवाहस्य सखेन्दु शतसप्तके । ( शक संवत् ७१० ) कल्यन्दे भूद्वयांकाग्निसम्मिते शंकरो गुरुः, ( ईस्वी सन् ७८८ ) शालिवाह शके त्वक्षिसिन्धुसप्तमितेऽभ्यगात् । (शक सं. ७४२ ) ( ईस्वी सन् ८२० )
दूसरा प्रमाण, ज्ञान सम्बन्धर का शंकर ने सौन्दर्य लहरी में उल्लेख किया है। जैसा कि पहले बताया जा चुका है ज्ञान सम्बन्धर ईस्वी सन् ६४० के लगभग विद्यमान था । उसने सुन्दर पाण्ड्य को जैन से शैव बनाकर शैवों का प्रचार और जैनों का संहार करवाया था । इससे यह सिद्ध होता है कि शंकराचार्य शैव सन्त ज्ञान सम्बन्धर के पश्चाद्वर्त्ती होने के कारण ईसा की आठवीं शताब्दी के पूर्व नहीं हो सकते ।
इसके अतिरिक्त कुमारिल्ल भट्ट के समय का निर्णय करते समय यह सप्रमाण बताया जा चुका है कि कुमारिल्ल भट्ट का समय ईसा की सातवीं शताब्दी
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