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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
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जब शंकर अपनी प्रतिज्ञानुसार शास्त्रार्थ के लिये भारती के पास पहुंचे तो भारती ने समझ लिया कि शंकर ने काम शास्त्र में भी निष्णातता प्राप्त कर ली है । शंकराचार्य द्वारा दिये गये अपने प्रश्नों के उत्तर सुनकर भारती निरुत्तर हो गई ।
अपनी प्रतिज्ञानुसार मण्डन मिश्र ने गृहस्थाश्रम का परित्याग कर शंकराचार्य का शिष्यत्व स्वीकार करते हुए सन्यास ग्रहण किया । सन्यास ग्रहण करने के अनन्तर मण्डन मिश्र का नाम शंकराचार्य ने सुरेश्वर रक्खा ।
मण्डन मिश्र और शंकराचार्य के शास्त्रार्थ का थोड़े विस्तार के साथ यह जो . विवरण दिया गया है वह यह बताने के लिये दिया गया है कि शंकराचार्य ने प्रत मत का एकछत्र साम्राज्य आर्यधरा पर प्रतिष्ठापित करने के लिये वैदिक धर्म के अनुयायी मीमांसक विद्वान् मण्डन मिश्र तक को शास्त्रार्थ में पराजित करने का दृढ़ निश्चय किया क्योंकि वे वैदिक धर्म के अनुयायी होते हुए भी श्र ुतियों (उपनिषदों प्रादि) को प्रामाणिक नहीं मानते थे । इस प्रकार की स्थिति में जैनों और बौद्धों के साथ शास्त्रार्थ करने और इनके सिद्धान्तों का खण्डन करने में किसी प्रकार की कोरकसर क्यों रखते ।
इस प्रकार विभिन्न धर्मों के सुदृढ़ गढ़ तुल्य केन्द्र समझे जाने वाले ४३ नगरों अथवा स्थानों पर शंकराचार्य ने अन्य दर्शनों के प्राचार्यों एवं विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ किये ।
शंकराचार्य के शिष्यों प्रशिष्यों द्वारा लिखित शंकर दिग्विजय के विवरणों के उल्लेखानुसार शंकराचार्य ने उन शास्त्रार्थों में सभी धर्मों के विद्वानों को पराजित किया । उन पराजित विद्वानों में से अधिकांश को श्रद्ध तवादी वैदिक धर्म का अनुयायी बनाया ।
वैदिक श्रद्वतवाद के प्रति शंकराचार्य की ऐसी प्रगाढ़ प्रास्था थी कि उससे किंचितमात्र भी भिन्न मान्यता वाले किसी भी वैष्णव, शैव अथवा वैदिक सम्प्रदाय को अपनी दिग्विजय यात्रा के अद्वैत मत मण्डनात्मक एवं श्रद्धं तेतर मत खण्डनात्मक शास्त्रार्थों में अछूता नहीं छोड़ा । शंकर दिग्विजय में स्पष्ट उल्लेख है कि अनन्तशयन नामक स्थान उस समय वैष्णवों के भक्त, भागवत, वैष्णव, पांचरात्र, वैखानस और कर्महीन ( नैष्कर्म्य) की इन छः सम्प्रदायों का एक सुदृढ़ गढ़ तुल्य केन्द्रस्थल था । उस अनन्तशयन नामक स्थान पर शंकराचार्य ने अपनी शिष्य मण्डली और अपने परम भक्त महाराजा सुधन्वा के दलबल के साथ एक मास तक निवास किया । शंकराचार्य ने उन सम्प्रदायों के प्राचार्य एवं विद्वानों से शास्त्रार्थ कर उन्हें पराजित किया । शंकराचार्य की अकाट्य युक्तियों से प्रभावित एवं सन्तुष्ट होकर उन वैष्णव सम्प्रदाय के नायकों एवं अनुयायियों ने भी शंकराचार्य के ब्रह्माद्वैतवादी वैदिक धर्म को अंगीकार कर लिया ।
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