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________________ ५६२ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ मुझे वाद में परास्त कर देंगे। अभी आपकी यह विजय अधूरी ही है। क्योंकि नारी अपने नर की अर्द्रागिनी होती है।" __ शंकर ने उसकी उक्ति को स्वीकार करते हए भारती के साथ शास्त्रार्थ प्रारम्भ किया। बहुत दिनों तक वह शास्त्रार्थ चलता रहा । जग पराजय का निर्णय न होते देख भारती ने कामशास्त्र से सम्बन्धित एक साथ अनेक प्रश्न शंकराचार्य से पूछे कि कला कियन्त्यो वद पुष्पधन्वनः, किमात्मिकाः किं च पदं समाश्रिताः । पूर्वे च पक्षे कथमन्यथा स्थितिः, कथं युवत्यां कथमेव पूरुषे ।। (शंकर दिग्विजय ६।६६) अर्थात् काम की कितनी कलाएं होती हैं ? उनका स्वरूप क्या है ? वे कलाएं किस स्थान पर रहती हैं ? शुक्ल एवं कृष्ण पक्षों में इनकी स्थिति समान ही रहती है अथवा भिन्न-भिन्न ? पुरुषों में तथा युवतियों में इन कलाओं का निवास किस प्रकार होता है ? इस प्रश्न को सुनकर शंकर कुछ क्षण अवाक् रहे । उन्होंने अनुभव किया कि उनके समक्ष धर्म संकट पा उपस्थित हुआ है। प्रश्न का उत्तर न देने पर सर्वत्र उनकी अल्पज्ञता ही सिद्ध होगी। अपने सन्यास धर्म की रक्षा करते हुए इन प्रश्नों का उत्तर दिया जाना कैसे सम्भव हो सकता है। इस प्रकार विचार मग्न रहने के पश्चात् शंकर ने भारती से इन प्रश्नों का उत्तर देने के लिए एक मास की अवधि चाही। भारती ने यह विचार करके कि एक माह में इनके एतद् विषयक ज्ञान में क्या परिवर्तन आने वाला है, उनको एक मास की अवधि प्रदान की। शंकर दिग्विजय प्रादि अनेक ग्रन्थों में उल्लेख है कि काम शास्त्र का ज्ञान प्राप्त करने के लिये शंकराचार्य ने अमरूक नामक किसी राजा के मृत शरीर में प्रवेश किया और वहां रहकर उन्होंने कामशास्त्र में भी निष्णातता प्राप्त कर ली।' , नास्मिन शरीरे कृतकिल्विषोऽहं जन्मप्रभृत्यम्ब न संदिहेऽहम् । व्यधायि देहान्तरसंश्रयाद्यन्नतेन लिप्येत हि कर्मणाऽन्यः ॥ (शंकर दिग्विजय १६/८६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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