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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
मण्डन मिश्र ने कण्ठोपनिषद् के निम्नलिखित श्लोक को उद्धृत करते हुए यह कहा :-"कण्ठोपनिषद् की इस प्रसिद्ध श्र ति पर विचार कीजिये । जो जीव और ईश्वर में ठीक उसी प्रकार का भेद स्वीकार कर रही है जिस प्रकार का कि भेद छाया और धूप में है।
ऋतं पिबन्ती सुकृतस्य लोके, गुहां प्रविष्टौ परमे परार्धे । छायातपो ब्रह्मविदो वदन्ति, पंचाग्नयो ये च त्रिणाचिकेताः ॥"
(कण्ठोपनिषद् १ । ३ । १) शंकराचार्य ने कहा- "यह तो लोकसिद्ध भेद का प्रतिपादन मात्र है। जो लोक में सिद्ध नहीं दृष्टिगोचर होता श्रति अभेद प्रतिपादक उसी नवीन अर्थ को प्रकट करती है । भेद तो जगत में सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। अतः उसे सिद्ध करने का प्रयास श्र ति कदापि नहीं कर सकती। क्योंकि श्रति तो सदा अपूर्व वस्तु के वर्णन में ही निरत रहती है । इस दृष्टि से यह अपूर्व वस्तु अभेद का प्रतिपादन है, न कि भेद का । श्रुतियों के बलाबल के विषय में आपने भलीभांति विचार नहीं किया है । उनकी प्रबलता के विषय में यह सिद्धान्त है कि यदि कोई श्रुति दूसरे प्रमाणों से पुष्ट की जाती है तो वह प्रबल नहीं मानी जा सकती। प्रबल श्रति तो वह है जो प्रत्यक्ष तथा अनुमान आदि के द्वारा न प्रकट किये गये अर्थ को प्रकट करे। पदार्थों की परस्पर विभिन्नता जिसे आप अनेक युक्तियां देकर सिद्ध करना चाहते हैं वह विभिन्नता तो विश्व में सर्वत्र प्रत्यक्ष ही दृष्टिगोचर होती है। अतः उसको प्रतिपादन करने वाली श्र ति दुर्बल होगी। अभेद तो जगत में कहीं दिखाई नहीं देता। अत: उसको वर्णन करने वाली श्रुति ही पूर्व की अपेक्षा प्रबलतम होगी। बलाबल की इस कसौटी पर श्रति की उक्ति को कसने पर "तत त्वमसि" का अभेद प्रतिपादन ही श्रुति का प्रतिपाद्य विषय प्रतीत होता है । अतः उपरिलिखित वाक्य का अर्थ जीव और ब्रह्म की एकता सिद्ध करने वाला है, जिसका विरोध न तो प्रत्यक्ष से है, न अनुमान से है और न श्र ति से ही है।"
शंकराचार्य की इस युक्ति को सुनते ही मण्डन मिश्र निरुत्तर हो गये । उनके गले की माला मलिन पड़ गयी । शास्त्रार्थ को देखने के लिये विशाल संख्या में उपस्थित हुआ विद्वद् समाज आश्चर्याभिभूत हो अवाक् रह गया। भारती ने शंकर को विजयी और अपने पति मण्डन मिश्र को पराजित घोषित किया।
। उस समय के भारत के सबसे उच्च कोटि के विद्वान् मण्डन मिश्र को पराजित कर देते से भारत भर के विद्वानों पर शंकराचार्य के अजेय पांडित्य की धाक सी जम गई ।
भारती ने शंकर से कहा:--"विद्वन् ! आपने शास्त्रार्थ में अभी तक मेरे पति को ही जीता है, मुझे नहीं , आपकी यह विजय पूरी तभी मानी जायगी जब कि आप
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